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जैन-परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य साहित्य को लेकर मैंने थोड़े विस्तृत रूप में उसका आलोडन किया है। इसमें जैन कथाओं के माध्यम से कृष्ण-जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंगों की जानकारी को तथ्य रूप में मैंने ग्रहण किया है। इससे जैन परंपरा में श्रीकृष्ण साहित्य को समझने और समझाने में सहायता उपलब्ध हो गयी है जो समीचीन
ही है। (८) चतुर्थ अध्याय मेरे शोधाध्ययन की रीढ़ की हड्डी कही जा
सकती है। इसमें विस्तत रूप से संस्कृत भाषा में उपलब्ध जैन श्रीकृष्ण साहित्य के चरित महाकाव्य, पुराण महाकाव्य, नेमिविषयक काव्य और पुराणों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया।
इस अध्ययन से प्रद्युम्न का चरित्र उभरकर सामने आया। (६) अर्जुन और श्रीकृष्ण की मैत्री के आयाम उपलब्ध हो गये। (१०) पांडव और श्रीकृष्ण के संबंधों पर जैन दृष्टि से प्रकाश डालने
का नया साधन प्राप्त हो गया। जो अपने आप में महत्वपूर्ण
माना जा सकता है। (११) नेमिनाथ और श्रीकृष्ण के संबंध जैन तात्त्विक दृष्टि से सुलझे
हुए रूप में उपस्थित हो गये। (१२) राजीमति के चरित्र की जानकारी जैन श्रीकृष्ण साहित्य के
करुण वीतरागी रस की जानकारी प्रदान करती है। काव्याध्ययन करने से जैन तत्त्वज्ञान को पारंपरिकता मेरे हृदय पटल पर अंकित होती गयी है। यह भी एक उपलब्धि मानी जा
सकती है। (१३) जैन साहित्यकारों की ये संस्कृत कृतियां अन्य जैनेतर संस्कृत
साहित्यकारों के साथ एक स्वस्थ और संतुलित स्पर्धा है जो
श्रेष्ठ मानी जा सकती है। ऐसी मेरी विनम्र प्रणति है । (१४) पंचम अध्याय में अपभ्रंश में उपलब्ध जैन श्रीकृष्ण साहित्य
का अनुशीलन मैंने किया। इससे श्रीकृष्ण के समग्र रूप से जैन
धरातल पर अध्ययन करने की एक भूमि प्राप्त हो गयी। (१५) षष्ठ अध्याय में मैंने अपने अब तक के अनुशीलन के आधार
पर ससंदर्भ समग्र जैन श्रीकृष्ण कथा का आलोडन प्रस्तुत कर
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