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तुलनात्मक निष्कर्ष, तथ्य एवं उपसंहार
२६५ पार्थक्य किए जाने योग्य अंतर भी है। इनका उल्लेख मैंने यथास्थान कर दिया है।
__ मेरे निष्कर्ष (१) मेरा यह अनुशीलन इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्थापित करता है
कि जैन साहित्य परंपरा में श्रीकृष्ण का विवेचन एक अपने ढंग का और अनुपमेय है, पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, संपूर्णतः मानवीय धरातल पर प्रतिष्ठित है तथा इसका साहित्यिक रूप भी श्लाघनीय है। दूसरा तथ्य यह प्रस्तुत होता है कि इस जैन परंपरा के श्रीकृष्ण साहित्य में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अवतारी पुरुष न होकर हवें वासुदेव हैं और समस्त जैन परंपरा के भिन्न-भिन्न श्रीकृष्ण साहित्य में पार्थक्य होते हुए भी एक सामान्य धरा
तल में यह उपस्थित है। (३) अपने विषय की शोधानुकलता के कारणों पर प्रकाश डालते
हुए अपने विषय प्रवेश में मैंने इन कारणों पर विचार किया है, जिनसे मैं इस अनुशीलन कार्य में प्रवृत्त हुआ। इसमें एक तथ्य श्रीकृष्ण की लोकप्रियता का है। उनका महत्व जैन साहित्य में अवतारवादी न होकर वे वसुदेव का है। श्रीकृष्ण के साथ नेमिनाथ का पारिवारिक रूप से चचेरे भाई का संबंध है और जैन परंपरा में श्रीकृष्ण की ही तरह नेमिनाथ तीर्थंकर होने से भी महत्वपूर्ण हैं। मैंने अपने अनुशीलन का विभाजन भी विषय की दृष्टि से प्रस्तुत कर अपने शोध की दिशाएं और सीमाएं निर्धारित कर
दी हैं। (६) द्वितीय अध्याय में प्राकृत भाषा में उपलब्ध जैन-आगम
श्रीकृष्ण साहित्य का अध्ययन प्रस्तुत करते हुए मेरे सामने कुछ निष्कर्ष भी आए जो अंत में मैंने दे दिये हैं। एक तरह से इसमें मेरे अध्ययन के सात सूत्र हाथ लगे हैं। वे सात प्राकृत ग्रंथों के अध्ययन से उपलब्ध हुए। ये सप्त सोपान महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि इनके बिना इस अध्ययन का उपक्रम करना
संभव नहीं था। (७) तृतीय अध्याय में प्राकृत भाषा के आगमेतर जैन श्रीकृष्ण
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