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जैन-परम्परा में श्रीकृष्ण साहित्य नरपति, नरेंद्र हैं । वे नर-वृषभ हैं और देवराज इंद्र के समान हैं। राजलक्ष्मी से शोभित वे राम और केशव दोनों भाई होते हैं । ____ इस प्रकार के श्रीकृष्ण जैन परंपरा में अकेले श्रीकृष्ण तो हैं किंतु वे और केवल वे ही वासुदेव नहीं हैं। श्रीकृष्ण तो ६ वासुदेवों में से एक हैं। वासुदेव की जो सामान्य भूमिका है, उससे श्रीकृष्ण का जैन परंपरा में जो स्थान है, जो व्यक्तित्व है वह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है। प्रत्येक वासूदेव की भांति श्रीकृष्ण भी त्रिखंडाधिपति हैं। उनका तीनों खण्डों पर एकछत्र आधिपत्य है । वासुदेव पद निदान-कृत होता है।
प्रत्येक वासुदेव के पूर्व प्रतिवासुदेव होता है। उसका भो तोन खण्डों पर आधिपत्य होता है। जीवन के अंतिम भाग में वह अधिकार के मद में उन्मत्त रहते लगता है और अन्यायी व अत्याचारी हो जाता है । अत्याचार को समाप्त करने के लिए वासुदेव प्रतिवासुदेव के साथ युद्ध करते हैं और. उनसे प्रतिवासुदेव पराजित हो जाता है । वासुदेव के हाथों प्रतिवासुदेव का संहार होता है। प्रतिवासुदेव का हनन स्वचक्र से ही हो जाता है। प्रतिवासूदेव के त्रिखंड साम्राज्य का संपूर्ण अधिकार वासूदेव को प्राप्त हो जाता है। श्रीकृष्ण वासुदेव और जरासन्ध प्रतिवासुदेव के प्रसंग ऐसे ही घटित हुए हैं। वासुदेव महान वीर और अपराजेय होते हैं । वे ३६ युद्ध करते हैं और कभी किसी भी युद्ध में उनका पराभव नहीं होता। उनमें ३० लाख अष्टापदों की शक्ति होती है किंतु वे कभी अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करते । वासुदेव बलशाली तो होते हैं, किंतु वे उपास्य नहीं होते। तीर्थंकर ही उपास्य होते हैं और वासुदेव भी उनकी उपासना करते हैं। श्रीकृष्ण वासुदेव भी तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि के परम श्रध्दालु भक्त थे। वासुदेव भौतिक दृष्टि से अपने युग के सर्व श्रेष्ठ अधिनायक होते हैं । आध्यात्मिक क्षेत्र में वे निदान-कृत होने के कारण चौथे गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ पाते। जैन परंपरा में तीर्थंकरत्व सर्वोच्च आध्यात्मिक उपलब्धि मान्य रही है। श्रीकृष्ण वासुदेव रहें हैं और वासुदेव इस स्थिति तक नहीं पहुंचते। जैन धर्म में तीर्थंकर ही धर्म-प्रणेता, प्रवर्तक एवं तीर्थंकर ही उपास्य और आराध्य होते हैं। श्रीकृष्ण का अवतारत्व और वासुदेवत्व :
इसके विपरीत वैदिक परंपरा में श्रीकृष्ण आराध्य हैं, उपास्य हैं, वे भ गिवत धर्म के प्रवर्तक हैं। पाणिनि के आधार पर यह भो स्थिर किया
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