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हिन्दी जैन श्रीकृष्ण रास, पुराण-साहित्य और अन्य
१६७ वही चक्र कृष्ण की प्रदक्षिणा करके दाहिने हाथ पर स्थिर हो कर पुनः श्रीकृष्ण द्वारा छोड़े जाने पर उसी चक्र ने जरासंध का सिरच्छेद कर दिया है। कवि के शब्दों में देखिये
तब मागधता सन्मुख गयो, चक्र फिराई हाकि करि लयो। तापर चक्र डारियो जामा, तीनों लोक कंपीयो तामा ॥ हरि को नमस्कार करि जानि, दाहिने हाथ चढ्यो सो आनि ।
तब पारायण छांड्यो सोइ, मागध टूक रतन सिर होई ॥46
युद्ध का कवि ने ओजस्वी शब्दों द्वारा तथा ओजस्वी भाषा में समर्थता पूर्ण वर्णन किया है जो द्रष्टव्य है
सेसपाल अरु भीखम राउ, पैदल मिले ण सुझै ठांड । धीरण मुंदते उछली खेह, जाणो गरजे भादों मेह ॥ सारंग पाणी धन क ले हाथ, शशिपाले पठउ जमसाथ । हाकि पछाडि उठे दोऊ वीर, बरसे बाण शयण घनघोर ॥47
प्रस्तुत कृति में श्रीकृष्ण के दूध-दही खाने और फैलाने का सुंदर, विवेचन है । यथा
आपुन खाई ग्वाल घर देई, धरकी क्षार विराणो एहा लेई ।
घर-घर बासण फोडे जाई, दूध-दही सब लेहि छिडाई ॥48 (२) खुशालचंद काला कृत हरिवंश पुराण और उत्तर पुराण :
इन दोनों पुस्तकों की हस्तलिखित प्रतियां जैन ग्रंथ भण्डार आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर, बाबा दुलीचंद शास्त्र भण्डार जयपुर तथा सौगानियों का मंदिर, करौली राजस्थान में उपलब्ध हैं। जिनसेनाचार्य कृत संस्कृत हरिवंश पुराण और गुणभद्राचार्य कृत संस्कृत उत्तरपुराण की शैली में दोनों ग्रंथ रचे गए हैं। प्रथम कृति की रचना संवत् १७३० (सन् १६७३) और दूसरी की रचना संवत् १७६६ (सन् १७४२) में पूर्ण हुई, ऐसा उल्लेख स्वयं लेखक ने ग्रंथ की समाप्ति में दिया है ।49
४६. हरिवंशपुराण : आगरा प्रति २५.१.४ । ४७. वही–पत्र ५२/१९६८ व १६६३ । ४८. हरिवंशपुराण, आगरा प्रति, १७०७-१७०८ ४६. उत्तरपुराण ले. खुशालचंद काला (उक्त हस्तलिखित प्रति पृ० ३०८, छंद ६१.
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