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________________ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव और ६ वासुदेव होंगे । सन्दर्भित ग्रन्थ में इनके नामों का भी उल्लेख किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में ५४-५४ महापुरुष होते हैं । इन चौपन महापुरुषों का विस्तृत विवरण जैन साहित्य में पाया जाता है। आचार्य शीलांक ने तो इन महापुरुषों की संख्या पर आधत 'चउपन्न महापुरिस चरियं' की रचना भी की है। यदि इस चौपन की संख्या में नौ प्रति वासुदेवों की संख्या और जोड़ दी जावे तो महापुरुषों की यह संख्या तिरसठ हो जाती है और इस आधार पर 'त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित्र' नामक ग्रन्थ की रचना हुई । श्रीकृष्ण नौवें और अन्तिम वासुदेव हुए तथा वे बाईसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि के समय हुए। दोनों एक ही परिवार में हए। अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय और श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव-दोनों भाई थे । श्रीकृष्ण महाभारत और जैन परम्परा के ग्रन्थों में पाण्डवों के सहायक के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनका व्यक्तित्व अतिविराट था, अलौकिक था। उनके इस अलौकिक व्यक्तित्व का जितना वर्णन महाभारत में हुआ है, उतना जैन ग्रन्थों में नहीं हुआ है। युद्ध रोकने के लिए जब श्रीकृष्ण शान्तिदूत बनकर कौरवों की सभा में हस्तिनापुर जाते हैं, तो प्रसंगानुसार वे वहां अपने विराट रूप का प्रदर्शन करते हैं । ऐसे विराट रूप का वर्णन जैन ग्रन्थों में नहीं किया गया है। उनके अन्य रूपों/गुणों का वर्णन लगभग समान रूप से जैन ग्रन्थों में पाया जाता है। जैन ग्रन्थों के अनुसार वे गुण-सम्पन्न और सदाचार-निष्ठ थे, अत्यन्त ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी महापुरुष थे। उन्हें ओधबली, अतिबली, महाबली, अप्रतिहत और अपराजित कहा गया है। उनके शरीर में अपार बल था । वे महारत्न वज्र को भी चुटकी से पीस डालते थे।1 श्रीकृष्ण के बाह्य व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए साहित्य मनीषी उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने लिखा है कि श्रीकृष्ण का शरीर मान, उन्मान और प्रमाण पूरा, सुजात और सर्वांग सुन्दर था । वे लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थे। उनका शरीर दस धनुष लम्बा था। देखने में बड़े ही कान्त, सौम्य, सुभग-स्वरूप और अत्यन्त प्रियदर्शी थे। वे प्रगल्भ धीर और विनयी थे। सुखशील होने पर भी उनके पास आलस्य फटकता नहीं था। उनकी वाणी गम्भीर, मधुर और प्रतिपूर्ण थी। उनका निनाद क्रौंच पक्षी के घोष, शरद् ऋतु की मेघध्वनि और दुन्दुभि की तरह मधुर व गम्भीर था। वे सत्यवादी थे। उनकी चाल मदमत्त श्रेष्ठ गजेन्द्र की तरह ललित थी। वे पीले रंग के कौशेय १. भगवान् अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पृ० १६२ २. वही, पृ० १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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