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प्रस्तावना
विश्व में अनन्त प्राणी हैं। इन अनन्त प्राणियों में मनुष्य भी एक प्राणी है किन्तु मनुष्य इन सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि वह बुद्धिमान/विवेक-- मान है। विवेक या बुद्धि अन्य प्राणियों के पास नहीं है। यही एक तत्त्व ऐसा है जो मनुष्य को अन्य समस्त प्राणियों से अलग करता है और श्रेष्ठता प्रदान करता है, परन्तु सब मनुष्य भी समान नहीं होते । बौद्धिक दृष्टिकोण से कुछ मनुष्य उच्चकोटि के विद्वान होते हैं, कुछ औसत बुद्धि वाले होते है और कुछ मन्द बुद्धि वाले होते हैं। क्षमता के अनुसार भी मनुष्यों का वर्गीकरण किया जा सकता है। वर्गीकरण में शास्त्रीय दृष्टिकोण की बाते करते हैं तो स्थानांगसूत्र के पुरुषजात-सूत्र के अनुसार
"पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-नाम पुरुष, स्थापना पुरुष और द्रव्य पुरुष । पुनः पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं -ज्ञान पुरुष, वेद पुरुष और चारित्र पुरुष । पुनः पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-वेद पुरुष, चिन्ह पुरुष और अभिलाप पुरुष । पुनः पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और जघन्य पुरुष । उत्तम पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-धर्म पुरुष (अरहन्त), भोग पुरुष (चक्रवर्ती) और कर्मपुरुष (वासुदेव) । मध्यम पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैंउग्र, भोग और राजन्य । जघन्य पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं-दास, भृतक और भागीदार।"
उपर्युक्त वर्गीकरण में प्राय: सभी प्रकार के पुरुष आ जाते हैं । अरहन्ततीर्थंकर धर्मपुरुष के अन्तर्गत हैं, चक्रवर्ती भोग पुरुष हैं और वासुदेव कर्मपुरुष हैं। वैदिक परम्परा में 'वासुदेव' श्रीकृष्ण के लिए प्रयुक्त होता है-वसुदेव के पुत्र होने से वासुदेव । किन्तु, जैन परम्परा में वासुदेव भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है।
स्थानांगसूत्र के ऋद्धिमत् सूत्र के अनुसार ऋद्धिमान अर्थात् वैभवशाली/ ऐश्वर्यशाली मनुष्य पांच प्रकार के बताए गये हैं, यथा
१. अरहन्त, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव और ५. अणगार।
समवायांग सूत्र के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव और ६ वासुदेव हुए और भागामी उत्सर्पिणी काल में भी २४
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