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संस्कृत-जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
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है। भाव व भाषा की दृष्टि से ये ३२ पद्य सरस चित्रण करते हुए लिखे है-यथा
अन्तभिन्ना मनसिजशरैर्मीलिताक्षं मुहूर्त
__ लब्ध्वा संज्ञामियमथ दशा वीक्षमाणातिदीना । शय्योत्संगे नवकिशलयन स्तरे शर्म लेभे
साम्रन्हीव स्थलकमलिनो न प्रबुद्धा न सुप्ता ॥30 इस तरह से विप्रलंभ शृंगार रस की अभिव्यक्ति सरस बन पडी है। शांतरस के पर्यवसान होने पर भी शृंगारपूर्ण अनेक भावचित्र इस कृति में मिल जाते हैं। द्वारिका की रमणियां मेघदूत की अलका की रमणियों की तरह मुग्ध दिखाई देती हैं।
कवि की रचना में कहीं भी कृत्रिमता नही दिखाई देती । भाषा प्रसादगुण युक्त है और काव्य में सर्वत्र प्रवाह मिलता है। जिस प्रकार मेघदूत का यश प्रेयसी के स्पर्श से आई हुई वस्तु में प्रेयसी के स्पर्श सुख का लाभ करता है उसी तरह राजीमती भी नेमिनाथ के स्पर्श से आई हुई वायू में स्पर्श सुख का आनंद लाभ करती है (पद्य ११५ में): शांतरस प्रधान होते हुए भी विरहभावना का सांगोपांग चित्रण सजीवता व सरसता के साथ वर्णित है। श्री देवेन्द्रमुनि जी शास्त्री के कथनानुसार वैदिक साहित्य में जैसा स्थान राधा और श्रीकृष्ण का है वैसा ही स्थान जैन साहित्य में राजीमति और अरिष्टनेमि का है। राजीमती देह की नहीं, देही की उपासना करना चाहती है। इसीलिए अरिष्टनेमि की साधना का मार्ग ग्रहण कर वह अरिष्टनेमि से पूर्व ही मुक्त हो जाती है । उसका प्रेम वासना का प्रेम नहीं है, यह लोकोक्ति प्रसिद्ध ही है कि “जो न होते नेम राजीमति तो क्या करते जैन के यति" 191
विरहिणी राजीमति गिरनार पर्वत पर रहती थी। विरक्त नेमिनाथ को संसाराभिमुख बनाने के लिए सखी के साथ अपनी विरह-व्यथा को व्यक्त करते हुए उसने कहलवाया है, यह व्यथा द्रष्टव्य है६६. नेमिदूत पृ० ६६ ६१. भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण एक अनुशीलन : ले० देवेंद्रमुनि
शास्त्री, पृ० ६४
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