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संस्कृत - जैन श्रीकृष्ण-साहित्य
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जिस हूंबड जाति को देखकर कवि को दिगंबर बताया गया है, वह हूंबड जाति श्वेताम्बरों में भी होती है और आज मालव देशस्थ प्रतापगढ़ में लगभग ७५ घर हूंबड जाति के हैं । ये सब के सब श्वेतांबर हैं । पूर्व में भी १२ वीं शादी के युगप्रधान दादा पदधारक श्री जिनदत्तसूरि जी भी saf hot 186
मदूत काव्य के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति सांप्रदायिक नहीं है । यहाँ श्वेतांबर या दिगंबर आम्नाय की कोई बात नहीं मिलती। जब तक कवि के गण-गच्छ का पता न लगे तब तक कवि के आम्नाय का यथार्थ निर्णय नहीं किया जा सकता । केवल श्वेतांबर - वृत्ति के आधार पर कवि को श्वेतांबर मानना ठीक नहीं। प्रेमीजी के तर्कों का अभी खण्डन नहीं हो पाया है । 87
नेमिदूत काव्य की एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १४७२ की " लिखी हुई है और दूसरी वि० सं० १५१६ की है । अतः वि०सं० १४७२ के पूर्व कवि को मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है । प्रेमीजी ने १३ वीं शती और विनयसागर जी ने १४वीं शदी माना है । कवि विक्रम खरतरगच्छ के जिनेश्वरसूरि के भक्त श्रावक थे ।
कथावस्तु
नेमकुमार विरक्त होकर जब तपश्चरण करने के लिए गए तब विरह विधुरा राजीमती ने एक वृद्ध ब्राह्मण को नेमि की तपोभूमि में उनके कुशलक्षेत्र के समाचार जानने के लिए भेजा। इसके बाद अपने पिता की आज्ञा से अपनी एक सखी को साथ लेकर वह स्वयं अनुनय विनय करती 'हुई अपने विरह से जले हुए हृदय को भावनाओं का प्रलाप व्यक्त करने लगी। पति के त्याग तपश्चरण का प्रभाव भी उस पर पड़ा और वह भी तपस्विनी बन तपाचरण करने लगी ।
कवि ने नाना प्रकार से द्वारिका नगरी का सौंदर्य और वैभव चित्रित किया है । राजीमती अनेकानेक उपायों द्वारा नेमिकुमार को संसाराभिमुखी बनाने का प्रयास करती रही पर उसे सफलता न मिली । रेवतक
८६. वही, प्रस्तावना पृ० ३
८७. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन: वाराणसी, सन् ८८. नेमिदूत : म० विनयसागर, प्रस्तावना पृ० ४
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योगदान, डॉ० नेमिचन्द शास्त्री १९७१, पृ० ४७६
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