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पर विचार किया गया है।
द्वितीय अध्याय में जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य का वर्णन किया गया है । इस अध्याय के अन्तर्गत जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन का संक्षिप्त परिचय देते हुये उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि तथा शिक्षा से सम्बन्धित साहित्य को समाहित किया गया है।
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तृतीय अध्याय में जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य तथा विषय की चर्चा की गयी है। दोनों परम्पराओं की शिक्षाओं को दो भागों में विभक्त किया गया है- आध्यात्मिक और लौकिक । आध्यात्मिक शिक्षा अन्तर्गत जैन धर्म के त्रिरत्न, पंचमहाव्रत आदि तथा बौद्धधर्म के चार आर्यसत्य और अष्टांगिक मार्ग आदि को निरूपित किया गया है । लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत जैन एवं बौद्ध शिक्षा में मान्य कलाओं तथा तत्कालीन पाठ्य विषयों को समाहित किया गया है। तत्पश्चात् दोनों परम्पराओं में मान्य सिद्धान्तों की तुलना की गयी है ।
चतुर्थ अध्याय में जैन एवं बौद्ध शिक्षा पद्धत्ति को निरूपित करते हुये जैन शिक्षणपद्धत्ति के अन्तर्गत पाठ - विधि, प्रश्नोत्तर - विधि, शास्त्रार्थ - विधि आदि नौ विधियों तथा बौद्ध शिक्षण-पद्धत्ति के अन्तर्गत भी पाठ - विधि, प्रश्नोत्तर - विधि, शास्त्रार्थ-विधि आदि सात विधियों को विवेचित किया गया है। तत्पश्चात् दोनों परम्पराओं में मान्य पद्धत्तियों की तुलना की गयी है।
पंचम अध्याय में शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व को विवेच्य विषय बनाया गया है। इसके अन्तर्गत दोनों परम्पराओं में मान्य गुरु के स्वरूप को विश्लेषित करते हुये गुरु की परिभाषा, लक्षण, पद पर नियुक्त होने की योग्यताएँ, गुरु के प्रकार, कर्तव्य आदि विषयों को समाहित किया गया है। तत्पश्चात् तुलना की गयी है।
षष्ठ अध्याय में दोनों परम्पराओं में मान्य शिक्षार्थी की योग्यतायें, विद्यारम्भ सम्बन्धी संस्कार, शिक्षार्थी की योग्यतायें, विनय और विनय के फल, शिक्षार्थी के कर्तव्य, शिक्षार्थी के प्रकार आदि विषयों को निरूपित किया गया है।
सप्तम अध्याय में गुरु और शिष्य के सम्बन्ध तथा तत्कालीन दण्ड-व्यवस्था को विवेचित किया गया है।
अष्टम अध्याय उपसंहार के रूप में लिया गया है जिसके अन्तर्गत जैन एवं बौद्धकालीन शिक्षा और आधुनिक शिक्षा को समायोजित करने का प्रयास किया गया है।
सन् १९८६ में मैंने इस विषय पर दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में
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