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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय अन्तर्गत पुरुषों की बहत्तर तथा स्त्रियों की चौसठ कलाओं का समावेश है। आध्यात्मिक शिक्षा का उद्देश्य
__जैन शिक्षा का मूल उद्देश्य आत्मा की चरम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करना अर्थात् आध्यात्मिक चरम पद की उपलब्धि तथा मानव में सुप्त अन्तर्निहित आत्मशक्तियों का विकास करना है। व्यक्तित्व के चरम विकास की अवस्था को ही जैन दर्शन में मोक्ष कहा गया है।२ मन, वचन और शरीर से किये गये प्रत्येक कर्म-अकर्म का शुभ-अशुभ कर्मबन्ध होता है। जब जीव सच्चे ज्ञान द्वारा अपने कर्मों को क्षीण करता है तब परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जैसे धनार्थी पुरुष राजा को जानकर उसके प्रति श्रद्धा करता है, फिर प्रयत्नपूर्वक उसका अनुसरण कर सुन्दर रीति से उसकी सेवा करता है, तब कहीं वह धन उपलब्ध करने में सफल होता है, वैसे ही मोक्षार्थी को जीव रूपी राजा को सम्यक् प्रकार से जानकर तदनुरूप प्रवृत्ति करनी चाहिये, तब कहीं वह आत्मा की उपलब्धि में सफल होता है। अतः कहा जा सकता है कि वासना और उद्दाम प्रवृत्तियों के स्थान पर आत्म-नियंत्रण और संयम की भावना को जागृत करना जैन शिक्षा का मूल उद्देश्य है। आध्यात्मिक शिक्षा के विषय
संसार में अनन्त प्राणी हैं और वे सभी सुख के अभिलाषी हैं। यद्यपि सभी की सुखकामना एक-सी नहीं होती है। पं० सुखलाल संघवी ने सुखकामी प्राणियों के सूख के आधार पर दो वर्ग बताये हैं- पहले वर्ग में अल्प विकासवाले ऐसे प्राणी आते हैं जिनके सुख की कल्पना बाह्य साधनों तक सीमित है। दूसरे वर्ग में अधिक विकासवाले ऐसे प्राणी आते हैं जो बाह्य अर्थात् भौतिक साधनों की प्राप्ति में सुख न मानकर आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति में सुख मानते हैं। दोनों में यही अन्तर है कि, पहला सुख पराधीन है और दूसरा स्वाधीन। लेकिन जब तक मनुष्य पराधीन अर्थात् सजीव और निर्जीव पदार्थों में आसक्ति रखता है, तब तक वह दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। आचारांग में कहा गया है कि कामनाओं का पूर्ण होना असम्भव है और जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता। कामेच्छुक मनुष्य शोक किया करता है, सन्ताप और परिताप उठाया करता है। जब तक मानव जीवन में आसक्ति बनी हुई है, मानवीय दुःख बने हुए हैं। इन दुःखों से छुटकारा तभी मिलता है जब मानव सांसारिक विषयों से निवृत्ति की ओर अग्रसर होता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो प्रक्रियाएँ अपनायी जाती हैं, वे निवृत्ति कहलाती हैं तथा सांसारिक बन्धनों की ओर ले जानेवाली सभी क्रियाएँ प्रवृत्ति कहलाती हैं।
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