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________________ ३४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कड़ियों के द्वारा ही संसार की सत्ता प्रमाणित होती है। वे बारह कड़ियाँ निम्नलिखित हैं (१) अविद्या, (२) संस्कार, (३) विज्ञान, (४) नामरूप, (५) षडायतन, (६) स्पर्श, (७) वेदना, (८) तृष्णा, (९) उपादान, (१०) भव, (११) जाति, (१२) जरामरण। ___अविद्या को समस्त दुःखों का मूल माना गया है- अविद्या से ही संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामकरण, नामकरण से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा और जरा से मरण की उत्पत्ति होती है। प्रतीत्यसमुत्पाद की उपर्युक्त बारह कड़ियों का सम्बन्ध तीन जन्मों से होता है जिसे आचार्य वसुबन्धु ने त्रिकाण्डात्मक नाम से सम्बोधित किया है।३० प्रथम दो अविद्या और संस्कार का सम्बन्ध अतीत जन्म से होता है, मध्य के आठ विज्ञान से लेकर उपादान तक का सम्बन्ध वर्तमान जीवन से होता है तथा अन्तिम दो जाति और जरामरण का सम्बन्ध भविष्य जन्म से होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद को मध्यम प्रतिपदा भी कहते हैं। इस सिद्धान्त में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद का समन्वय होता है। शाश्वतवाद के अनुसार कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जिनका न आदि है और न अन्त। उनका कोई कारण भी नहीं है तथा वे किसी वस्तु पर अवलम्बित नहीं हैं। उच्छेदवाद के अनुसार वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता है। बुद्ध ने इन ऐकान्तिक मतों को छोड़कर मध्यम-मार्ग का अनुसरण किया है। उनका कहना है कि वस्तुओं के अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं है, किन्तु वे न तो सर्वथा नित्य ही हैं और न उनका पूर्ण विनाश ही होता है। प्रत्येक वस्तु अपने कारण से उत्पन्न होती है। कार्य न तो कारण से अलग होता है और न भिन्न ही। बीज से अंकुर उत्पन्न होता है, पर बीज अंकुर नहीं होता है, दूसरी ओर अंकुर भी बीज से बिल्कुल भिन्न वस्तु नहीं होता। अतः बीज नित्य और स्थिर नहीं है, क्योंकि वह अंकुर के रूप में परिवर्तित होता है। बीज नष्ट भी नहीं होता है, क्योंकि अंकुर में बीज का ही रूपान्तरण होता है।३१ इस प्रकार बुद्ध ने न कार्य को कारण से अन्य माना और न कार्य को कारण रूप ही माना है। क्षणभंगवाद जन्म और मरण संसार का स्वभाव है। जहाँ जन्म है वहाँ मरण भी है। जो महान मालूम पड़ता है, उसका पतन भी होता है। जहाँ संयोग हैं वहाँ वियोग भी है। बौद्ध दर्शन के अनुसार जगत में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो सर्वथा स्थिर हो, नित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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