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जैन एवं बौद्ध धर्म-दर्शन तथा उनके साहित्य गोत्र- जीव का उच्च कुल में होना, निम्न कुल में होना, दीन होना आदि गोत्र कर्म पर निर्भर करता है।
अन्तराय- अभीप्सित वस्तु की प्राप्ति में बाधा पहुँचानेवाला कर्म अन्तरायकर्म कहलाता है। जिस प्रकार राजा की इजाजत होने पर भी भण्डारी के दिये बिना कोई वस्तु इजाजत प्राप्त व्यक्ति को नहीं मिलती, वैसे ही अन्तराय कर्मबन्ध के दूर हए बिना इच्छित वस्तु सरलता से नहीं मिलती।
जैन दर्शन की मान्यता है कि जीव अपने कर्म के आधार पर ही अगला जीवन धारण करता है। अतीत कर्मों का फल हमारा वर्तमान जीवन है और वर्तमान कर्मों के फल के आधार पर ही हमारा भावी जीवन होता है। जैन कर्म-साहित्य में समस्त संसारी जीवों का समावेश चार प्रकार की गतियों में किया गया है- तिर्यञ्च, नारक, मनुष्य
और देव। अत: वर्तमान जीवन का आयुष्य परिपूर्ण होने पर जीव अपने गति नामकर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में उत्पन्न होता है।
बौद्ध धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि बौद्ध धर्म विश्व के धर्मों में अपना अलग स्थान रखता है। बौद्धधर्म के तीन मौलिक सिद्धान्त हैं जिनके निरूपण से बौद्ध धर्म की दार्शनिक पृष्ठभूमि जानी जा सकती है। वे सिद्धान्त हैं- प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणभंगवाद और अनात्मवाद। मूलत: प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इसके आधार पर ही अन्य सिद्धान्तों की व्याख्या की जाती है। जिस प्रकार जैन सिद्धान्तों की व्याख्या अनेकान्त के आधार पर की जाती है, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन के सभी सिद्धान्तों की व्याख्या प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर की जाती है। कर्मवाद, क्षणिकवाद, संघातवाद आदि के मूल में प्रतीत्यसमुत्पाद ही है। प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात् प्रत्ययों से उत्पत्ति का नियम। प्रतीत्य अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर, समुत्पाद अर्थात् अन्य वस्तु की उत्पत्ति।२८ तात्पर्य है कि एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति का सिद्धान्त या कारण के आधार पर कार्य की निष्पत्ति का सिद्धान्त। भगवान् बुद्ध ने कहा है- इस चीज के होने पर यह चीज होती है। जगत की वस्तुओं या घटनाओं में सर्वत्र यह कार्य-कारण नियम जागरूक होता है।२९ कारण के रहने से ही कार्य होता है। इसी कारण-कार्य के आधार पर बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद की बारह कड़ियाँ प्रस्तुत की हैं जिसे भवचक्र के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इन बारह भंगों (अंगों) को द्वादशनिदान भी कहा गया है। इन बारह
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