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शिक्षा दर्शन : एक सामान्य परिचय
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अन्योन्याश्रय सम्बन्ध का समर्थन करते हुए लिखा है- ' दर्शन के अभाव में शिक्षण कला भी पूर्ण स्पष्टता नहीं प्राप्त कर सकती। दोनों के बीच एक अन्योन्याश्रय क्रिया चलती रहती है और एक के बिना दूसरा अपूर्ण तथा अनुपयोगी है। ३२ अमरीकी विद्वान जॉन डीवी ने कहा है- 'दर्शन शिक्षा विषयक सिद्धान्त का सामान्यीकृत रूप है। शिक्षा ही दार्शनिक विचारों को मूर्त रूप प्रदान करती है। इसलिए जॉन एडम्स महोदय ने शिक्षा को दर्शन का गत्यात्मक पक्ष बताया है। रॉस ने अपनी पुस्तक में उनके विषय में लिखा है- 'सर जॉन एडम्स अपने छात्रों को बताया करते थे कि 'शिक्षा' दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। दार्शनिक विश्वास का यह क्रियाशील पक्ष है, जीव के उद्देश्यों को प्राप्त करने का व्यावहारिक साधन है।' ३४ इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा दर्शन की सहायता करती है तथा उसके उद्देश्यों को साकार बनाती है; किन्तु अधिकांश विद्वान शिक्षा की समस्याओं के दार्शनिक हल को ही शिक्षा दर्शन कहते हैं। जैसे हेण्डरसन महोदय ने शिक्षा दर्शन को परिभाषित करते हुए कहा है- 'शिक्षा-दर्शन, शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन में दर्शन का प्रयोग है।' ३५ इसी प्रकार कनिंघम महोदय ने कहा है - 'दर्शन वस्तुओं का विज्ञान है, इसलिए शिक्षा दर्शन की समस्या के सभी पक्षों पर विचार करता है । '३६
शिक्षा और दर्शन कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते। उनका अलगाव निश्चित ही दोनों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। शिक्षा और दर्शन का सम्बन्ध एक अन्य प्रकार से इस तरह समझा जा सकता है— कोई भी व्यक्ति चाहे वह उच्चकोटि का विद्वान हो या निम्नकोटि का, दार्शनिक जगत की समस्याओं पर विचार करते-करते अन्ततः शिक्षा के विषय में विचार करने ही लगता है। शिक्षा के विषय में विचार करना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनके दार्शनिक सिद्धान्तों को व्यावहारिकता का रूप शिक्षा द्वारा ही प्राप्त होता है। यद्यपि कुछ आधुनिक दर्शनशास्त्री शिक्षा को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं और इस प्रकार वे अपने क्षेत्र के साथ ही विश्वासघात करते हैं। प्राचीन भारतीय विचारक जैसे- वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, गौतम आदि तथा पाश्चात्य विचारक जैसे- सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, रूसो, रसेल आदि दार्शनिकों ने शिक्षा की उपेक्षा नहीं की, बल्कि इन लोगों ने भी शिक्षा पर विचार किया है। जॉन डीवी भी इसी विचारधारा के समर्थक थे। उनका कहना है - 'शिक्षा दर्शन, सामान्य दर्शन का एक दीन सम्बन्धी नहीं है, यद्यपि अधिकांश दार्शनिक उसे ऐसा ही मानते हैं। अंशत: शिक्षादर्शन दर्शन का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है, क्योंकि शिक्षा की प्रक्रिया से ही ज्ञान प्राप्त होता है। '
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इस प्रकार शिक्षा और दर्शन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचारों से यह
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