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उपसंहार
२२१ परन्तु आज सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो यह है कि हममें से कोई भी शिक्षा के उद्देश्य के सम्बन्ध में स्पष्ट नहीं हैं - न अभिभावक, न शिक्षक, न समाजसुधारक और न समाज ही। सरकार भी यह स्पष्ट नहीं कर पा रही है कि देश के लिए किस तरह की शिक्षा-व्यवस्था की जाये जिससे देश की उन्नति हो। यद्यपि सरकार ने नयी शिक्षा नीति बनायी है जिसमें १०+२+३ की नयी शिक्षण-प्रणाली स्वीकृत है। इसका मुख्य उद्देश्य है सबको नये रोजगार के अवसर प्रदान करना तथा विश्व के अन्य उन्नत देशों के समक्ष खड़ा करना। इस शिक्षण-प्रणाली में त्रिभाषा फार्मूला पारित किया गया है - (१) राष्ट्रभाषा हिन्दी, (२) विदेशी भाषा, और (३) प्रान्तीय भाषा। इस त्रिभाषा फार्मूला में भारत की मूल भाषाएँ संस्कृत, प्राकृत और पालि को कोई स्थान नहीं दिया गया है। १०+२+३ शिक्षणप्रणाली से पहले भी तो ११+१+३ शिक्षण-प्रणाली थी। दोनों में समय तो लगभग बराबर लगते हैं, फिर मात्र विषयों के हेरा-फेरी से क्या लाभ ? इससे पहले भी शिक्षा में कई सुधार किये गये हैं, जैसे विश्वविद्यालय कमीशन, मुदालियर कमीशन, शैक्षणिक पंचवर्षीय कार्यक्रम, स्त्री-शिक्षा के लिए बालिका विद्यालय एवं नयी शिक्षा- नीति के तहत नवोदय विद्यालय की स्थापना आदि अनेक सुधार के प्रयास किये गये हैं। फिर भी यह निश्चित नहीं हो पाया कि शिक्षा कैसी होनी चाहिए?
आज हम जब बालकों के चरित्र-निर्माण या संस्कार-निर्माण की बातें करते हैं तो इसके पीछे क्या आशय निहित होता है? क्या ऐसा तो नहीं कि हम आधुनिक शिक्षाप्रणाली के द्वारा ऐसे समाज की रचना करना चाहते हैं जो एक ओर धार्मिक गृहों, यथामन्दिरों, मस्जिदों, चर्चों में अथवा सामाजिक समारोहों और मंचों पर बाहर से धर्म, सदाचार, नैतिकता और सौजन्यता का दिखावा करता हो वहीं दूसरी ओर जीवन के कर्मक्षेत्र में कुटिलता और वासना से रंजित हो? या फिर कहीं हम ऐसी संस्कृति की रचना तो नहीं करना चाहते जो आन्तरिक मूल्यों से रिक्त हो और बाहरी दिखावे पर खड़ा हो? या हम सदाचार और नैतिकता के आन्तरिक मूल्यों से रिक्त तथा भोगवाद और औपचारिक शिष्टाचार पर जीवित पाश्चात्य सभ्यता को पुनर्जीवित तो नहीं करना चाहते हैं? या हम अपनी शिक्षण-प्रणाली को बिल्कुल साम्प्रदायिक मदान्धता या रूढ़िवादिता पर आधारित तो नहीं देखना चाहते हैं? ।
धर्म, नैतिकता, सत्यनिष्ठा तथा आध्यात्मिकता से हीन वर्तमान शिक्षा राष्ट्र के प्रत्येक स्तर पर अस्थिरता एवं अशान्ति का निमित्त बन रही है। समाज के उच्च वर्ग तथा मध्यम वर्ग सभी को पाश्चात्य ढंग के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की ललक पड़ी हई है। यद्यपि ऐसे स्कूलों से निकले बालक औपचारिक सौजन्य और बाह्य शिष्टाचार में तो निश्चित ही आगे होते हैं; किन्तु वे किसी आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यवादी
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