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________________ २०८ जैन एवं बौद्ध शिक्षा दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन परन्तु उनके परमप्रिय शिष्य आनन्द उन गलतियों को पूछना भूल गये। इसलिए बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् प्रथम बौद्ध संगीति में इस जनापवाद के भय से कि लोग कहीं यह न कहें कि बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करते ही संघ छिन्न-भिन्न हो गया इसलिए धर्म एवं संघ की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु संघ - नियमों की कठोरता से पालन करने की प्रतिज्ञा की गयी । ४४ बौद्ध दण्ड- प्रणाली में जिन अपराधों के कारण शिक्षार्थियों को दण्डित करने का विधान था उसे आपत्ति कहते हैं। शिक्षापदों तथा विभंग के नियमों की अवहेलना करना या उनका अतिक्रमण करना आपत्ति है । ४५ मुख्य रूप से पाँच प्रकार के दोष माने गये हैं- (१) पारांजिक, (२) संघादिसेस, (३) निस्सग्गिय पाचित्तिय, (४) पाचित्तिय और (५) पाटिदेसनीय। इनके अतिरिक्त भी तीन प्रकार के दोष मिलते हैं- (१) थुल्लवच्चय, (२) दुक्कट, (३) दुब्भासित। इस तरह बौद्ध परम्परा के अनुसार आठ प्रकार के दोष हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है। - ४७ पाराजिक- जिन अपराधों को करने से शिक्षार्थी को संघ से निकाल दिया जाता था उसे पारांजिक कहते हैं । ४६ यह सबसे कठोर अपराध माना जाता था। ऐसा दोषी व्यक्ति सत्यपथ से पराजित समझा जाता था। पाराजिक अपराधी की तुलना उस व्यक्ति से की गई है जिसका सिर काट दिया गया हो, उस मुरझाये पत्ते से की गयी है जो वृक्ष से गिर गया हो, ऐसे पत्थर से की गयी है जो दो भागों में बँट गया हो। ४८ संघादिसेस - इस दोष के लिए कुछ समय का परिवास आदि दण्ड संघ की ओर से दिया जाता था। बहुत एक या अधिक भिक्षु मिलकर इसका निर्णय नहीं कर सकते थे इसलिए इसे संघादिसेस कहा गया । ४९ यह पारांजिक के बाद दूसरा गम्भीर अपराध माना जाता था । प्रायश्चित्त की गुरुता के दृष्टिकोण से यह पारांजिक की श्रेणी में ही आता है। यह दण्ड मुख्य रूप से कामासक्तता, दूसरे पर पारांजिक का दोषारोपण करने, संघ में फूट डालने आदि पर दिया जाता था । निस्सग्गिय पाचित्तिय - जिन अपराधों का प्रतिकार संघ, बहुत से भिक्षु या एक भिक्षु के सामने स्वीकार करने से हो जाता था उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय अर्थात् नैसर्गिक प्रायश्चित्त कहते हैं । ५° यह दण्ड मुख्य रूप से चीवर तथा पान के सम्बन्ध में दिया जाता था। इस प्रकार के अपराध करनेवाले व्यक्ति को अपने वस्त्रों तथा पात्रों को कुछ समय के लिए त्यागना पड़ता था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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