________________
गुरु-शिष्य-सम्बन्ध एवं दण्ड-व्यवस्था
२०५ मुँह फाड़कर दवा पिलाती है जिससे कि बालक का भला होता है किन्तु बौद्ध प्रणाली में यह देखने को नहीं मिलता है। बौद्ध प्रणाली में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते हुए भी कहीं-कहीं द्वेषपूर्ण देखने को मिलते हैं। जैन शिक्षण-प्रणाली में इस प्रकार की कहीं चर्चा नहीं आती है।
दण्ड- व्यवस्था किसी भी संस्था या संगठन को सुचारु रूप से चलाने तथा नियमों को दृढ़तापूर्वक स्थापित करने के लिए दण्ड देने का विधान किया जाता है। जैन एवं बौद्ध शिक्षणप्रणाली में भी विद्यार्थियों के लिए दण्ड की व्यवस्था थी। वर्तमान में भी यही दण्डव्यवस्था है।
जैन शिक्षण-प्रणाली में दो प्रकार के दण्ड निर्धारित किये गये थे(१) लघुमासिक प्रायश्चित्त या उद्घातिक प्रायश्चित्त।
(२) गुरुमासिक प्रायश्चित्त या अनुद्धातिक प्रायश्चित्त। लघुमासिक प्रायश्चित्त
जो प्रतिसेवना लघु प्रायश्चित्त द्वारा सरलता से शुद्ध की जा सके, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त या उद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं। गुरुमासिक प्रायश्चित्त
जो प्रतिसेवना गुरु प्रायश्चित्त से कठिनता से शुद्ध की जा सके, उसे गुरु मासिक प्रायश्चित्त या अनुद्धातिक प्रायश्चित्त कहते हैं।
जैनधर्म में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताये गये हैं३५–
(१) आलोचना- विकृत हुए व्रतों का यथाविधि पालन करते हुए दोषों को गुरु के समक्ष निवेदित करना आलोचना है।
(२) प्रतिक्रमण- कर्तव्य का पालन करते हुए जो भूलें हो जाती हैं, उनके लिए यह कहकर दोष-निवृत्त होना- 'मिच्छामि दुक्कडं' अर्थात् मेरे द्वारा किये गये दुष्कर्म मिथ्या हों। दैनिक क्रियाओं में प्रमाद के कारण दोष लगने पर उसकी निवृत्ति के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक माना गया है।
(३) तदुभय- दोषों के निवारणार्थ आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय प्रायश्चित्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org