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२०४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आतिथ्य सत्कार भी करते थे।२६ पढ़ाते समय कुछ भी छिपाकर नहीं रखते थे, जो कुछ भी आता था सब कुछ बता देते थे।२७ अध्यापन के साथ-साथ उनके चरित्र पर भी ध्यान रखते थे। उन्हें बताते थे कि कहाँ पर किस प्रकार जाना चाहिए, किस प्रकार आना चाहिए। इसी प्रकार देखना, पहनना, सिकुड़ना, पसरना, ओढ़ना, पात्र लेना, गुजारे भर लेना, प्रत्यवेक्षणा कर भोजन ग्रहण करना, इन्द्रियसंयमी होना, भोजन में मात्रज्ञ होना, जागरूक होना, अतिथि कर्तव्य, जानेवाले के प्रति कर्तव्य आदि बातों को सिखलाते थे।२८ शिष्य आचार्य से एक दूसरे की शिकायत भी करते थे।२९ कभी-कभी आचार्य बाहर जाते समय योग्य विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम सौंप जाते थे। वे शिष्य से कहते थे - जब तक मैं बाहर रहूँ तब तक विद्यार्थियों को पढ़ाना। एक बार गाँव के लोगों ने आचार्य को पाठ करने के लिए निमन्त्रित किया, तब आचार्य ने शिष्य को बुलाकर कहा - मैं नहीं जाऊँगा, तुम इन पाँच सौ ब्रह्मचारियों के साथ वहाँ जाकर पाठ समाप्त होने पर हमारा हिस्सा ले आना।२० इससे यह ज्ञात होता है कि बौद्ध शिक्षा में गुरु-शिष्य-सम्बन्ध घनिष्ठ, मधुर तथा अच्छे थे।३१ गुरु-शिष्य की घनिष्ठता का सबल प्रमाण इससे भी मिलता है कि गुरु योग्य शिष्य से अपनी कन्या का विवाह भी कर देते थे।३२ कतिपय आचार्यों के परिवारों में यह परम्परा इतनी दृढ़ थी कि शिष्यों को उनकी इच्छा के विपरीत गुरु-कन्याओं का पाणिग्रहण करना पड़ता था।३३
गुरु-शिष्य के मधुर सम्बन्धों के बावजूद कहीं-कहीं गरु और शिष्य के द्वेषपूर्ण सम्बन्धों के उल्लेख भी मिलते हैं, जैसे - कभी-कभी शिष्य गुरुओं को प्रतियोगिता के लिए ललकारते थे। ‘जातक' में ऐसा वर्णन मिलता है कि एक शिष्य ने गुरु से मुकाबला कर दिया। यह मुकाबला जनता के सामने हुआ। जनता को फैसला करना था कि गुरु अर्थात् आचार्य अधिक जानते हैं या उनका उदण्ड शिष्य। उस समय आचार्य पद बहुत ऊँचा था। लोगों ने पत्थरों से मार-मार तक उस उदण्ड शिष्य को समाप्त कर दिया।३४ ऐसे कृतघ्न शिष्य समाज में हेय दृष्टि से देखे जाते थे, किन्तु ऐसे शिष्य अपवाद रूप में मिलते थे।
तुलना
दोनों परम्पराओं में गुरु-शिष्य के सम्बन्ध में काफी समानता दिखायी पड़ती है। दोनों ही परम्पराओं में गुरु अपने शिष्य से पुत्रवत् व्यवहार करते थे। दोनों परम्पराओं में शिष्य के लिए गुरु माता-पिता आदि से उच्च माने गये हैं। दोनों परम्पराओं में यह भी देखने को मिलता है कि आचार्य लोग योग्य शिष्य से अपनी कन्या का विवाह कर देते थे। एक अन्तर देखने को मिलता है - जैन प्रणाली में आचार्य शिष्य से उनके दोषों की आलोचना जबरदस्ती करवाते थे जिस प्रकार माँ अपने रोते हुए बच्चे को
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