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________________ २०२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन उपर्युक्त कथन एक ओर तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था में गुरु के हृदय में शिष्य के प्रति अगाध स्नेह होने का संकेत देता है वहीं दूसरी ओर गुरु के मन में शिष्य के प्रति उच्च आदर्श, प्रेरणा तथा शुभ संकल्पों का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है। जैन शिक्षा-पद्धति में गुरु-शिष्य-सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए जैन विद्वान् डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने लिखा है - अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण हुआ करते थे और विद्यार्थी अपने गुरुओं के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते थे।२। जैन ग्रन्थों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के आचार्यों (गुरुओं) का वर्णन है- कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। इन आचार्यों के प्रति शिष्य के कर्तव्य को बताते हुए कहा गया है कि कलाचार्य और शिल्पाचार्य का उपलेपन और सम्मर्दन करना चाहिए, उन्हें पुष्प समर्पित करना चाहिए तथा स्नान कराने के पश्चात् वस्त्राभूषणों से मण्डित करना चाहिए। तत्पश्चात् भोजन आदि कराकर जीवन भर के लिए प्रीतिदान देकर पुत्र-पौत्र तक चलनेवाली आजीविका का प्रबन्ध करना चाहिए। धर्माचार्य को देखकर उनका सम्मान करना चाहिए और उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि गुरु दुर्भिक्ष प्रदेश में रहते हों तो शिष्य का कर्तव्य है कि उन्हें सुभिक्ष देश में ले जाये, दीर्घकालीन रोग से उन्हें मुक्त करने की चेष्टा करे। __अध्यापक भी विद्यार्थियों के प्रति पूर्ण स्नेह रखते थे। उनके साथ पुत्रवत् व्यवहार करते थे। यदि शिष्य अपने दोषों की स्वयं आलोचना नहीं करता था तो गुरु उसे जबरदस्ती आलोचना करने को बाध्य करते थे। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार माँ अपने रोते हुए बालक को मुँह फाड़कर उसे औषधि पिलाती है, जिससे उसका कल्याण होता है। कुछ विद्यार्थी अध्यापक के घर रहकर पढ़ते थे और कुछ नगर के धनवान व्यक्तियों के घर अपने रहने-सहने और खाने-पीने का प्रबन्ध कर लेते थे।६ कभी-कभी विद्यार्थियों का विवाह अपने गुरु की कन्या से ही सम्पन्न हो जाता था। 'उत्तराध्ययन टीका' में ऐसा वर्णन है कि मगध देश के अचल ग्राम में धरणिजढ़ नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके पुत्र का नाम कपिल था। वह रत्नपुर नगर में गया और वहाँ उपाध्याय के घर रहकर विद्याभ्यास करने लगा। कुछ समय व्यतीत होने के बाद गुरु ने अपनी कन्या का उसके साथ विवाह कर दिया। बौद्ध शिक्षा-पद्धति में भी गुरु-शिष्य-सम्बन्ध मधुर एवं सम थे। गुरु और शिष्य के इस घनिष्ठ सम्बन्ध पर जातकों में वर्णित कथाओं से अत्यधिक प्रकाश पड़ता है। छात्र विद्याध्ययन के लिए उन प्रतिष्ठित आचार्यों के पास जाते थे जिनकी विद्वता की ख्याति चारों ओर व्याप्त थी। विद्यार्थियों का अध्यापक से सीधा सम्बन्ध होता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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