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शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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(७)
(६) यद्यपि दोनों ही परम्पराओं में विनय और सदाचार से शिक्षार्थी की योग्यता निर्धारित
की गयी है लेकिन बौद्ध परम्परा में पितृहन्ता, मातृहन्ता या अर्हत्हन्ता को प्रव्रज्या संस्कार से वंचित किया गया है। जहाँ तक शिक्षार्थी के कर्तव्यों की बात है तो दोनों ही परम्पराओं में विस्तार से वर्णन किया गया है। जैन परम्परा में चौदह प्रकार के शिक्षार्थी बताये गये हैं जबकि बौद्ध परम्परा में मुख्य रूप से तीन प्रकार के शिक्षार्थियों का वर्णन आया है। प्रकारों के इस अन्तर के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में शिक्षार्थी के गुण-अवगुण के आधार पर उसके प्रकार निर्धारित किये गये हैं, जबकि बौद्ध
परम्परा में शिक्षार्थी के उद्देश्य के आधार पर उसके भेद-विभेद किये गये हैं। (८) बौद्ध परम्परा में विकलांगों को प्रव्रज्या से वंचित किया गया है। ऐसा उद्धरण
जैन परम्परा में नहीं मिलता है। सन्दर्भ : १. 'जैन, बौद्ध और गीता का समाज दर्शन', पृ०-४२. २. संस्कृत शब्दार्थ कोशा' । ३. कल्पसूत्र टीका', ५,१२० ४. 'भगवतीसूत्र', भाग ४, ११/११/४०५. ५. 'राजप्रश्नीयसूत्र', मधुकर मुनि, ४०९. ६. 'भगवती' (अभयदेववृत्ति), ११/११/४२९, पृ०-९९९. ७-८. ततोऽस्य पंचमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने। ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसंख्यान संग्रहः।
'आदिपुराण', ३८/१०२. ९. ततो भगवतो वक्त्रानिःसृतामक्षरावलीम् ।
सिद्धं नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम ।। अकारादिहकारान्तां शुद्धांमुक्तावलीमिव । स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम् ।। वही, १६/१०५-१०६. क्रियोपनीति मास्य वर्षे गर्भाष्टये मता।
यत्रापनीतकेशस्य मौञ्जी सव्रतबन्धना।। वही, ३८/१०४. ११. शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निर्वेषविक्रियः।
व्रतचिहं दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ।। चरणो चितमन्यच्च नामधेयं तदस्य वै। वृत्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राजन्यादुद्धवैभवात्।। सोऽन्तःपुरे चरेत् पात्र्यां नियोग इति केवलम्। तटग्रं देवसात्कत्य ततोऽन्नं योग्यमाहरेत्।। वही, ३८/१०६-१०८
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