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शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व
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तो उन्हें देव का स्वरूप माना गया है। ८४ आचार्य की आज्ञा तीर्थङ्कर के समान अनुलंघनीय होती है। ८५ वे तीर्थङ्कर की अनुपस्थिति में तीर्थङ्कर के समान तीर्थ के संचालक होते हैं। अतः वे तीर्थङ्कर के सदृश होते हैं। ८६ 'दशवैकालिक' में अनेक उपमाओं द्वारा उपमित करते हुए उनकी गरिमा पर प्रकाश डाला गया है। जिस प्रकार प्रातःकाल रात्रि के अन्त में देदीप्यमान सूर्य समस्त भरतखण्ड को अपने किरण समूह से प्रकाशित करता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् प्रकाशित करते हैं तथा जिस प्रकार स्वर्ग में देव सभा के मध्य इन्द्र शोभते हैं, उसी प्रकार साधु सभा के मध्य आचार्य शोभते हैं। ८७ चन्द्रमा की उपमा देते हुए कहा गया है - जिस प्रकार कौमुदी के योग से युक्त तथा नक्षत्र और ताराओं के समूह से घिरा हुआ चन्द्रमा बादलों से रहित अतीव स्वच्छ आकाश में शोभित होता है, ठीक उसी प्रकार आचार्य भी साधु समूह में सम्यक्त्या शोभित होते हैं । ८८
आचार्य (गुरु) के कर्तव्य
जैन ग्रन्थो में गुरु के निम्नलिखित कर्तव्य बताये गये हैं।
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(१) आचार्य (गुरु) को चाहिए कि विनीत शिष्य को, अपनी कमजोरी छिपाये बिना सरल शब्दों में सही-सही ज्ञान करायें । ८९
(२) गुरु को चाहिए कि वे सारगर्भित प्रश्नों के उत्तर ही दें। असम्बद्ध, असारगर्भित और निश्चयात्मक वाणी का प्रयोग न करें । ९०
(३) गुरु निपुण एवं विनीत शिष्य की ही अभिलाषा करें। यदि विनीत शिष्य न मिले तो व्यर्थ का शिष्य परिवार न बढ़ाकर एकाकी विचरण करें । ९१
(४) उपदेश देते समय शिष्य को पुत्र के समान मानकर उसके लाभ को दृष्टि में रखें । ९२ (५) ऐसे शिष्य को उपदेश न दें जो उस उपदेश का पालन न करे, अपितु विनीत शिष्य को ही उपदेश दें, जैसे- चित्त का जीव, सम्भूत के जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को उपदेश देकर सोचता है कि मैंने इसे व्यर्थ उपदेश दिया, क्योंकि इस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है । ९३
बौद्ध परम्परा
बौद्ध शिक्षण-पद्धति में शिक्षक अथवा गुरु को आचार्य और उपाध्याय की संज्ञा से विभूषित किया गया है । ९४ जो विद्या, चारित्र तथा स्तर की दृष्टि से योग्य होते थे वही आचार्य और उपाध्याय कहलाते थे। उन दोनों के कार्य को देखते हुए दोनों में अन्तर दिखलाना कठिन है। जैसा कि 'महावग्ग' में वर्णन है- उपाध्याय वरिष्ठ अधिकारी
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