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१५४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
कोटि का माना जाता है,उसी प्रकार जो आचार्य केवल षट्काय- प्रज्ञापक गाथादि रूप अल्पसूत्र के धारक और विशिष्ट क्रियाहीन होते हैं वे चाण्डाल के करण्डक
के समान माने जाते हैं। (२) वेश्या के करण्डक के समान- जैसे वेश्या का करण्डक लाख सोने के
दिखावटी आभूषणों से भरा होता है, वैसे ही जो आचार्य ज्ञान अधिक न होने पर भी वाह्याडम्बर से व्यक्तियों को प्रभावित कर लेते हैं वे वेश्या के करण्डक
के समान होते हैं। (३) गृहपति के करण्डक के समान- जो आचार्य स्व-समय - पर-समय के जानकार
तथा चारित्र-सम्पन्न होते हैं वे गृहाति के करण्डक के समान समझे जाते हैं। (४) राजा के करण्डक के समान- जैसे राजा का करण्डक मणि-माणिक आदि
बहुमूल्य रत्नों से भरा होता है, उसी प्रकार जो आचार्य अपने पद के योग्य सर्वगुणों से सम्पन्न होते हैं, वे राजा के करण्डक के समान होते हैं।
'महानिशीथ' व 'गुरुतत्त्वविनिश्चय' में निक्षेप की अपेक्षा से आचार्य के चार प्रकार बताये गये हैं८२ (१) नाम आचार्य- जिसका नाम आचार्य हो। (२) स्थापना आचार्य- आचार्य की प्रतिकृति बनाकर कागज आदि पर आचार्य
लिखना। (३) द्रव्य आचार्य- वर्तमान में आचार्य नहीं हैं, अतीत काल में थे या भविष्य
में होनेवाले हैं, उन्हें द्रव्य आचार्य कहते हैं। 'गुरुतत्त्वविनिश्चय के अनुसार द्रव्याचार्य दो प्रकार के हैं- (क) प्रधान द्रव्याचार्य और (ख) अप्रधान द्रव्याचार्य। जो आचार्य वर्तमान में भावाचार्य नहीं हैं, लेकिन भविष्य में भावाचार्य बनने योग्य हैं वे प्रधान द्रव्याचार्य हैं। जो आचार्य भावाचार्य नहीं हैं और न भविष्य में ही भावाचार्य बनाने
लायक हैं वे अप्रधान द्रव्याचार्य हैं। (४) भाव आचार्य- आचार्य के समग्र गुणों से युक्त होना भाव आचार्य है। आचार्य (गुरु) की गरिमा
गुरु का स्थान हमारे समाज में अतीव पूजनीय है। उनकी गरिमा का गुणगान जैन आगमों में मुक्त कण्ठ से किया गया है। पंचतत्त्वों में उन्हें मध्य स्थान प्राप्त है तथा 'णमो आयरियाणं' के रूप में उनकी उपासना की जाती है।८३ वैदिक धर्म में
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