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________________ १४० जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रकर्तृत्व- आचार्य में इतनी कर्तृत्व शक्ति होनी चाहिए कि संकट का समय उपस्थित होने पर संघ की रक्षा करने में पीछे न हटे। साथ ही समाधिमरण कराने एवं समाधिमरण ग्रहण करनेवाले श्रमणों का वैयावृत्य कराने में कुशल हो। आयापायदर्शी- दोषों की आलोचना न करनेवाले क्षपक को भय होता है कि मेरे दोष प्रकट होने पर सब मेरा निरादर करेंगे। ऐसे समय में आलोचना करनेवाले क्षपक को आय और उपाय यानी कि आलोचना के गुण एवं आलोचना न करने के दोषों को बतलाने में कुशल आचार्य आयापायदर्शी आचार्य होते हैं। __अवपीडक- कोई क्षपक आलोचना के गुण-दोष को जानते हुए भी अपने दोषों को प्रकट करने के लिए तैयार नहीं होता। तब आचार्य क्षपक के दोषों को उसी प्रकार निकालते हैं जिस प्रकार माता बच्चे का मुँह खोलकर दवा पिलाती है। अपरिस्राव- श्रमणों द्वारा आलोचित दोषों को दूसरे श्रमणों के आगे वैसे ही प्रकट नहीं करना जैसे तपाये गये लोहे द्वारा पीया गया पानी कभी प्रकट नहीं होता है।३१ निर्यापक-समाधिमरण स्वीकार करनेवाले साधु क्षुधा, तृषादि परीषहों से पीड़ित होने पर क्रुद्ध भी होते हैं। उन्हें अपनी मृदुवाणी से हितोपदेश देते हुए उनकी बाधाओं को दूर करने में कुशल आचार्य निर्यापकधारी होते हैं।३२ ।। उपर्युक्त आठ गुणों से सम्पन्न साधु को ही आचार्य पद के योग्य माना गया है। श्वेताम्बर परम्परा के 'व्यवहारभाष्य' में प्रायश्चित्तों के वर्णन में आलोचनाह की विशेषताओं का भी उल्लेख है। आलोचनाह निरप्रलापी होते हैं और इन आठ विशेषणों से युक्त होते हैं। ३३ उक्त आठ गुणों के अतिरिक्त आचेलक्य आदि दस स्थितिकल्प, बारह तप और छह आवश्यक आदि, लेकर छत्तीस गुण बताये गये हैं। दस स्थितिकल्प आचेलक्य, औद्देशिक का त्याग, शय्यातरपिण्ड का त्याग, राजपिण्ड का त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासस्थिति और पर्युषण - ये दस स्थितिकल्प हैं। ‘भगवती आराधना' में आचार्य के आचारवत्व आदि गुण का प्रकारान्तर से कथन करते हुए इन दस कल्पों पर प्रकाश डाला गया है। जो दस स्थितिकल्पों में स्थित हैं, वे आचार्य आचारवत्व गुण के धारक हैं और आठ प्रवचन माताओं में संलग्न हैं। ३४ किन्तु यह दिगम्बरीय मान्यता है। श्वेताम्बर परम्परा में भी स्थितिकल्प हैं लेकिन वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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