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________________ शिक्षक की योग्यता एवं दायित्व १३९ उल्लेख है।२४ 'भगवती आराधना' की अपनी टीका में पं०आशाधर जी ने उक्त गाथा के सम्बन्ध में लिखा है - ‘भगवती आराधना' के अनुसार छत्तीस गुण इस प्रकार हैं - आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ आदि। ये छत्तीस गुण 'भगवती आराधना की संस्कृत टीका' के अनुसार है। प्राकृत टीका में अट्ठाइस मूल गुण और आचारवत्व आदि आठ- ये छत्तीस गुण हैं अथवा दस आलोचना के गुण, दस प्रायश्चित्त के गुण, दस स्थितिकल्प और छह जीतगुण- ये छत्तीस गुण हैं। ऐसी स्थिति में भगवती आराधना में सुनी गयी यह गाथा प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती है। २५ 'बोधपाहुड' की गाथा दो की संस्कृत टीका के अनुसार आचार्य के छत्तीस गुण इस प्रकार हैं- आचारवान, श्रुतधारी, प्रायश्चित्तदातार, गुण-दोष का प्रवक्ता; किन्तु दोष को प्रकट न करनेवाला, अपरिस्रावी, साधुओं को सन्तोष देनेवाले निर्यापक, दिगम्बरवेषी, अनुदिष्टभोजी, अशय्यासनी, अराजभुक, क्रियायुक्त, व्रतवान्, ज्येष्ठसद्गुणी, प्रतिक्रमण करनेवाला, षट्मास योगी, द्वि निषद्धावाला, बारह तप और छह आवश्यक ये छत्तीस गुण आचार्य (गुरु) के हैं।२६ आचारवत्व आदि आठ गुण आचार्य आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, प्रकर्तृत्व, आय और अपायदर्शी, अवपीडक, अपरिस्रावी और सुखकारी होता है। इन आठ गुणों को निम्न रूप से परिभाषित किया गया है आचारवान- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार- इन पाँच आचारों का जो स्वयं पालन करते हैं और अपने शिष्यों को करवाते हैं, वे आचार्य आचारवान होते हैं। दूसरे शब्दों में जो ज्ञान, दर्शनादि आचारों में अपने आपको भी नियुक्त करते हैं और अपने शिष्यादि को भी नियुक्त करते हैं, वे आचार्य आचारवान हैं।२७ आधारवान- वे आचार्य जिन्हें श्रुतशास्त्र का असाधारण ज्ञान हो आधारवान होते हैं। दूसरे शब्दों में जो चौदह पूर्व या दस पूर्व या नौ पूर्व के ज्ञाता हों, महाबुद्धिशाली हों, सागर की तरह गम्भीर हों, कल्पव्यवहार के ज्ञाता हों वे आधारवान हैं।२८ व्यवहारवान- प्रायश्चित्त को ही व्यवहार कहते हैं।२९ जो आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत आदि पाँच प्रकार के व्यवहार (प्रायश्चित) को यथार्थ रूप में विस्तार से जानता है, जिसने बहुत से आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखा है और स्वयं भी प्रायश्चित्त किया है उसे व्यवहारवान आचार्य कहते हैं।३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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