________________
१२२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
माइडरल ने लिखा है- शास्त्रार्थ-विधि में शास्त्रीय विवादों को प्रोत्साहन दिया जाता था। इस प्रकार की विज्ञमंडलियाँ शिक्षा की एक अनोखी विशेषता थीं।८२
ओमप्रकाशजी ने भी इस विधि का समर्थन किया है। उनके कथन से यह बिल्कुल ही स्पष्ट हो जाता है कि शास्त्रार्थ-विधि बौद्ध शिक्षण-प्रणाली की प्रधान विधि थी। उनका कहना है कि अन्य धर्मावलम्बियों को बौद्ध बनाने के लिए यह आवश्यक था कि बौद्ध भिक्षु उनसे शास्त्रार्थ करके यह सिद्ध कर सके कि दूसरों के सिद्धान्त गलत हैं और बौद्ध मतावलम्बियों के सिद्धान्त सही हैं। इसीलिए बौद्ध शिक्षण-पद्धति में तर्क और न्याय की शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है।८३ उपमा-विधि
उपमा-विधि को उदाहरण विधि भी कहा जा सकता है। इस शैली का प्रयोग कथ्य विषय को और स्पष्ट करने के लिए किया जाता था। भगवान् बुद्ध तथा उनके अनुयायियों ने इस विधि का खुलकर प्रयोग किया था। 'मिलिन्दपन्ह' में नागसेन ने राजा मिलिन्द के प्रश्नों का उत्तर विभिन्न उपमाओं के माध्यम से दिया है। इस विधि के द्वारा गुरु विषय को सरलतम ढंग से हृदयंगम करने योग्य तथा कर्णप्रिय बनाते थे८५ जिससे शिक्षार्थी आसानी से तथ्य को समझ सके। प्रश्नोत्तर-विधि
इस विधि में गुरु और शिष्य दोनों एक-दूसरे से प्रश्न करते थे तथा एक-दूसरे के प्रश्नों का उत्तर देते थे। 'कथावत्थु' एवं 'मिलिन्दपन्ह' में इस विधि का विशेष रूप से प्रयोग हुआ है। बौद्ध साहित्य में चार प्रकार की प्रश्नोत्तर शैली का निरूपण है८६(१) एकांशव्याकरणीय- जिस प्रश्न का उत्तर सरल रूप से दिया जाता है वह
एकांशव्याकरणीय है, जैसे-प्रश्न - क्या प्राणी जो उत्पन्न हुआ है, वह मरेगा?
उत्तर - हाँ। (२) विभज्यव्याकरणीय- जिस प्रश्न का उत्तर विभक्त करके दिया जाता है वह
विभज्यव्याकरणीय है, जैसे- क्या मृत्यु के अनन्तर प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है? उत्तर - क्लेश से विमुक्त प्राणी जन्म नहीं लेता और क्लेशयुक्त प्राणी जन्म
लेता है। (३) प्रतिपृच्छाव्याकरणीय- जिस प्रश्न का उत्तर एक दूसरा प्रश्न पूछकर दिया
जाता है वह प्रतिपृच्छाव्याकरणीय है, जैसे- क्या मनुष्य उत्तम है या अधम? इसका उत्तर देने के लिए पूछना पड़ेगा कि किसके सम्बन्ध में? यदि प्रश्न पशुओं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org