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११४ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन धर्मकथा। इसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
(१)वाचना-वाचना का अर्थ होता है 'पढ़ना'। शब्द का शुद्ध उच्चारण करना, अर्थ को शुद्ध रूप से ग्रहण करना, बिना विचारे न तो शीघ्रता से पढ़ना और न अस्थान में रुक-रुक कर पढ़ना तथा 'आदि' शब्द से पढ़ते हुए अक्षर या पद को न छोड़ना इत्यादि वाचना है।४४
(२) प्रच्छना- प्रच्छना का अर्थ पूछना, प्रश्न आदि करना होता है। ग्रन्थ और अर्थ दोनों के विषय में 'क्या यह ऐसा है अथवा अन्यथा है', इस सन्देह को दूर करने के लिए अथवा 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार से निश्चितता को दृढ़ करने के लिए प्रश्न करना प्रच्छना है। प्रश्न करना स्वाध्याय का मुख्य अंग है।०५
(३) अनुप्रेक्षा- ज्ञात या निश्चित अर्थ का मन से बार-बार चिन्तन अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत ही स्वाध्याय के लक्षण और अन्तर्जल्प रूप पाठ आते हैं। वाचना आदि में बहिर्जल्प होता है जबकि अनुप्रेक्षा में मन में पढ़ने या विचारने से अन्तर्जल्प होता है। 'मूलाचार टीका' में अनित्यता आदि के बार-बार चिन्तन को अनुप्रेक्षा कहा गया है और उसे स्वाध्याय का भेद स्वीकार किया गया है।४६
(४) आम्नाय- पठित ग्रन्थ के शुद्धतापूर्वक पुन:पुन: उच्चारण को आम्नाय कहते हैं।४७
धर्मकथा- देववन्दना के साथ मंगलपाठ पूर्वक धर्म-उपदेश करना धर्मकथा है।४८ इसके भी आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजनी और निवेदनी चार भेद हैं(१) आक्षेपिणी- जिस कथा में ज्ञान और चारित्र का कथन किया जाता है, जैसे
मति आदि ज्ञानों का यह स्वरूप है और सामाजिक आदि चारित्र का यह स्वरूप
है, उसे आक्षेपिणी कहते हैं। ९ ।। (२) विक्षेपिणी- जिस कथा में स्वसमय और परसमय का कथन किया जाता
है वह विक्षेपणी है, जैसे वस्तु सर्वथा नित्य है या सर्वथा क्षणिक है, सर्वथा एक है या सर्वथा अनेक है, सब सत्स्वरूप ही है या विज्ञान रूप ही है या सर्वथा शून्य है, इत्यादि। परसमय को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित करके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम से उसमें विरोध बतलाकर कथंचित नित्य, कथंचित अनित्य, कथंचित एक, कथंचित अनेक इत्यादि स्वरूप का निरूपण करना विक्षेपणी
कथा कहलाती है।५० (३) संवेजनी- ज्ञान, चारित्र और तप के अभ्यास से आत्मा में प्रकट होनेवाली
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