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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय (३३) शब्दवेधित्व- शब्द सुनकर लक्ष्य बेधने की कला शब्दबेधित्व है। इसे शब्दभेदी
भी कहते हैं। (३४) दृढ़प्रहारित्व- दृढ़ आघात करने की कला को जानना दृढ़प्रहारित्व है। (३५) अक्षक्रीड़ा- द्यूत खेलने की कला अक्षक्रीड़ा है। 'ऋग्वेद' में भी अक्ष और
पाशक्रीड़ा का उल्लेख आया है।११६ (३६) काव्यकरण- कविता की रचना करना व अध्ययन करना काव्यकरण है। (३७) ग्रन्थ- गद्य-पद्य की प्रबन्ध रचना करना ग्रन्थ कला है। वैदिककाल में भी
गाथापति ११७ आदि का उल्लेख मिलता है। (३८) चित्र- चित्र बनाने की कला जानना। (३९) रूप- रूप बोध करने की कला रूप है। (४०) रूपकर्म- रूप सजाने की कला रूप-कर्म है। (४१) अधीत- अध्ययन कार्य को जानना अधीत है। (४२) अग्निकर्म- अग्नि उत्पन्न करने की युक्ति अग्निकर्म कला है। (४३) वीणा- वीणा बजाने की कला जानना। कादम्बरी में भी वीणा का
उल्लेख है।११८ (४४) वाद्य- सभी प्रकार के वाद्यों को बजाने की कला का ज्ञान होना। (४५) नृत्य- नाचने की कला नृत्य है। 'छान्दोग्योपनिषद्' में भी नृत्य, गीत, वाद्य
आदि कलाओं का उल्लेख है।११९ (४६) गीत- गायन कला जिसके अन्तर्गत स्वर, ताल तथा लय का महत्त्वपूर्ण
स्थान है। (४७) पठित- ग्रन्थ वाचने की कला को पठित कहते हैं। पढ़ते समय शब्दों के
उतार-चढ़ाव का ज्ञान भी इसी के अन्तर्गत आ जाता है। (४८) आख्यान- इतिहास तथा कहानी कहने की कला आख्यान है। (४९) हास्य- विनोद करने, मनोरंजन करने की कला हास्य है। (५०) लास्य- सुकुमार नृत्य करने की कला लास्य कहलाती है। (५१) नाट्य- अभिनय करने की कला नाट्य कहलाती है। प्राचीनकाल में नाट्य,
नृत्य, गीत, वाद्य आदि को संगीत के अन्तर्गत माना जाता था।
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