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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय
होते हैं१०९
(१) श्रुतमयी जो ज्ञान श्रुत से या आप्तपुरुषों के वचनों से प्राप्त हो वह
श्रुतमयी है।
(२) चिन्तामयी १११(३) भावनामयी ११२.
―
जो ज्ञान चिन्तन से प्राप्त हो वह चिन्तामयी है।
जो ज्ञान समाधि से प्राप्त हो वह भावनामयी है। 'दीघनिकाय' में कहा गया है- प्रज्ञावान व्यक्ति नानाप्रकार की ऋद्धियाँ ही नहीं पाता प्रत्युत् प्राणियों के पूर्व जन्म का ज्ञान, परिचित ज्ञान, दिव्य श्रोत्र, दिव्य चक्षु तथा दुःखक्षय ज्ञान से सम्पन्न होता है । ११३ इस प्रकार शील, समाधि और प्रज्ञा के माध्यम से साधक निर्वाण की प्राप्ति करता है ।
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लौकिक शिक्षा के विषय
बौद्धकालीन लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अन्य विषयों के साथ कला की शिक्षा भी दी जाती थी । शान्तिभिक्षु शास्त्री ने कलाओं की संख्या ९६ (छानबे ) बतायी है, जो इस प्रकार हैं—
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(१) लंधित - लंबी कूद का ज्ञान होना ।
(२) लिपि - लिखने की कला अर्थात् अक्षर विद्या का ज्ञान होना । इस कला में ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि चौंसठ प्रकार की लिपियों का ज्ञान कराया जाता था।
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(३) मुद्रा - हस्तरेखा विद्या का ज्ञान होना ।
(४) गणना - गणना अर्थात् गणितशास्त्र का परिज्ञान होना ।
(५) संख्या- अंकशास्त्र को जानना । अंकज्ञान की शिक्षा प्राचीनकाल से चली आ रही है।
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(६) सालम्भ – सालम्भ का अर्थ होता है मल्लविद्या अर्थात् बाहों से युद्ध करने की कला सालम्भ है।
(७) धनुर्वेद - बाणों से दूर की वस्तु को भेदने की कला धनुर्वेद है। (८) जवित — दौड़ लगाने की कला को जवित कहते हैं।
(९) प्लवित — दौड़कर ऊँची कूद लगाना प्लवित है। (१०) तरण - जल में तैरने व भागने की कला तरण है। (११) इष्वस्त्र - बाण चलाने की कला इस्वस्त्र है।
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