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प्रबन्धशतकर्तृ-महाकवि-श्रीरामचन्द्रसूरि-विरचितं कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
।।प्रथमोऽङ्कः।। यः प्राप निवृति क्लेशाननुभूय भवार्णवे। तस्मै विश्वैकमित्राय त्रिधा नाभिभुवे नमः।।१।।
(नान्द्यन्ते) सूत्रधार:-(साक्षेपम्) भो भोः सभासदः! सावधानाः शृणुत विज्ञापनामेकाम्व्यामोहप्रतिरोहपीतमनसः प्रज्ञाप्रसादाञ्चिता
स्तस्माद् यद्यपजानते किमपि तैर्बाध्यामहे किं वयम्?।
प्रथम अक्क जिसने संसाररूपी सागर में (अनेकविध आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) कष्टों को सहकर मोक्ष प्राप्त कर लिया है, विश्व के एकमात्र मित्रस्वरूप उस भगवान् ऋषभदेव को तीन बार नमस्कार है।।१।।
(नान्दी के पश्चात्) सूत्रधार-(क्रोधपूर्वक) हे हे सभासदो! आप लोग सावधान होकर एक सूचना सुनें
मोह (अज्ञान) के आवरण से मन्दबुद्धि वाले लोग यदि हमारी कुछ निन्दा करते हैं तो क्या उससे ज्ञानी (नाट्यकर्म में दक्ष)हम अज्ञानी सिद्ध हो जायेंगे?
१. टिप्पणी : प्रकृत श्लोक नान्दी के रूप में पठित है। रूपकभेदों में उनके निर्विघ्न
प्रदर्शन के उद्देश्य से सम्पादित होने वाले पूर्वरङ्ग के अन्तर्गत नाटकादि के प्रदर्शन से ठीक पहले सूत्रधार नान्दीपाठ करता है। इसमें अपने इष्टदेव, ब्राह्मण अथवा राजाओं की आशीर्वचनयुक्त स्तुति की जाती है, जैसा कि इसका साहित्यदर्पणोक्त लक्षण है -
आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात्प्रयुज्यते । देवद्विजनृपादीनां तस्मानान्दीति संज्ञिता ।। -सा.द., ६/२४।
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