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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पुरुष:- मित्रानन्दोऽस्मि।
सिद्धाधिनाथ:- (प्रणम्य) परमेश्वर! प्रसीद प्रसीद, क्षमस्व कृतग्रस्य क्रूरचेतसोऽनङ्गदासस्य तमेकमपराधम्। (पञ्चभैरवं प्रति) स एष मे जीवितस्य स्वामी मित्रानन्दो यद्वेषणाय यूयमभ्यर्थिताः। (पञ्चभैरव: यावकोपलेपनमपनीय मित्रानन्दं सिंहासने समुपवेशयति।)
__(आत्रेयी प्रत्यभिज्ञाय परिरभ्य च तारस्वरं प्रलपति।) पुरुष:- (सबाष्पम्) प्रिये! कामिमां दुःस्थामवस्थामधिगतवत्यसि?
सिद्धाधिनाथ:-- अपरमपि बहु कर्तव्यमस्ति। परमिदानीं गृहाण स्त्रीरत्नमेकम्। अमुमेव कुण्डानिं प्रदक्षिणीकृत्य परिणय भगवतः पञ्चबाणस्य पुरतः। (लम्बस्तनी प्रति) उपनय द्वितीयां तां तापसीम्।
(प्रविश्य तापसी प्रणमति।) आत्रेयी- (निभृतं विलोक्य) कथमेसा सुमित्ता? (कथमेषा सुमित्रा?)
पुरुष- हाँ, मैं मित्रानन्द ही हूँ।
सिद्धाधिनाथ- (प्रणाम करके) परमेश्वर! प्रसन्न हों,, प्रसन्न हों, क्रूरहदयी और कृतघ्न अनङ्गदास के इस एकमात्र अपराध को क्षमा करें। (पञ्चभैरव से) यही हैं मेरे प्राणदाता मित्रानन्द, जिनको खोजने हेतु मैंने आप से कहा था। (पञ्चभैरव महावर के लेप को धोकर मित्रानन्द को सिंहासन पर बैठाता है।)
(आत्रेयी पहचान कर और आलिङ्गन कर जोर से रोती है।) पुरुष- (आँसू बहाते हुए) प्रिये! तुम्हारी यह कैसी दुर्दशा हो गयी है?
सिद्धाधिनाथ– अभी और भी बहुत कार्य करना है। परन्तु इस समय आप एक स्त्रीरत्न का ग्रहण कीजिए और भगवान् कामदेव के सम्मुख ही इसी कुण्डाग्नि की प्रदक्षिणा कर उससे विवाह कीजिए। (पुन: लम्बस्तनी से) उस दूसरी तापसी को समीप लाओ।
(तापसी प्रवेश कर प्रणाम करती है।) आत्रेयी- (ध्यान से देखकर) क्या यह सुमित्रा है?
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१. अवलोक्य का
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