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दशमोऽङ्कः खलु भवती विकटकपटनाटकघटनासु, ततस्त्वमपि भग्नाऽसि।
लम्बस्तनी- किमहं करेमि?, सा खु अत्तेई न आहरदि, न जंपेदि, णवरं तवोविहाणकदनिच्छया रोअंती चिट्ठदि। __ (किमहं करोमि? सा खलु आत्रेयी नाऽऽहरति, न जल्पति, नवरं तपोविधानकृतनिश्चया रुदती तिष्ठति।)
सिद्धाधिनाथ:- निजस्य पत्युः प्रेम्णा पत्यन्तरं नाभिलषति?, उताहो मन्मथाभावेन?।
लम्बस्तनी- (साक्षेपम्) सा किमत्थि इत्थिआ?, जीइ वम्महो न भोदि। (सा किमस्ति स्त्री?, यस्या मन्मथो न भवति।)
सिद्धाधिनाथ:- सन्ति ताः कियन्त्योऽप्यस्मिन् जगति स्त्रियो यासां मन्मथसहस्रमपि न मनो व्यथयति। खीसम्पर्क इव पुरुषसम्पर्कोऽपि न विकाराय। अगसंस्कारो लोकव्यवहारो न कामोद्गारः। जठरपिठरीभरणमात्रावषयः सर्वेऽप्यभिलाषाः पुरुषोपसेवाऽऽजीविकार्थम् न मन्मथव्यथा
(पुनः उपहासपूर्वक) तुम तो बड़े-बड़े कपटजाल रचने में निपुण हो और तुम भी असफल हो गई?
लम्बस्तनी- मैं क्या करूँ? वह आत्रेयी न खाती है, न बोलती है और पति के मिलनपर्यन्त उपवास रखने का निश्चय कर रोती रहती है।
सिद्धाधिनाथ- अपने पति के प्रेमवश दूसरे पति की इच्छा नहीं करती अथवा काम के अभाव के कारण?
लम्बस्तनी- (क्रोधपूर्वक) वह कैसी स्त्री है जिसमें कामभाव न हो?
सिद्धाधिनाथ- इस संसार में ऐसी कितनी ही स्त्रियाँ हैं जिनके मन को हजारों कामदेव भी व्यथित नहीं कर सकते। स्त्री-सम्पर्क के समान पुरुष-सम्पर्क भी उनके मन को विकृत नहीं कर सकता। वे आभूषणधारणादि अङ्गसंस्कार केवल लोकव्यवहार के कारण करती हैं, कामोद्दीपन के लिए नहीं। उनकी समस्त अभिलाषाएँ पेट भरने मात्र तक सीमित रहती हैं। वे पुरुष की सेवा आजीविका हेतु करती हैं न कि कामसन्ताप की शान्ति हेतु। पति, पिता एवं भाई
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