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________________ १५६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् समूलकाषं कषतां द्विषन्महीं, शिशून् पितृभ्यां हरतां च निर्दयम् । अपक्षपातेन यदर्थनिर्णय स्तदेव धर्मः किमपि क्षमाभुजाम् ।। ६ ।। ततः किम् ? चारायणः युवराज: - समानशील- सन्तान - युक्ति-व्यापारयोर्द्वयोः । विना विशेषचिह्नेन युक्तो नैकत्र निर्णयः ।।७।। मकरन्दः- देव ! विशेषचिह्नमप्यस्ति । युवराज:- कोऽवकाशस्तर्हि विवादस्य ? मकरन्द: - - देव! सुवर्णेष्टिकासम्पुटानि यानि तानि सर्वाण्यपि मन्नामाङ्कितानि । युवराज : - देवशर्मन् ! ससुवर्णसम्पुटं सुवर्णकारमाकारय । (देवशर्मा निष्क्रान्तः । ) शत्रु के राज्य को पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करने वाले और माता-पिता से भी उनके बच्चों का निर्दय होकर (दण्ड देने हेतु ) हरण करने वाले राजाओं का यही धर्म है कि वे किसी विवाद का निर्णय विना पक्षपात के करें ।। ६ ।। चारायण - उससे क्या ? युवराज — दोनों का स्वभाव, सन्तान, तर्क और कार्य समान होने के कारण विना किसी विशेष चिह्न के किसी एक के पक्ष में निर्णय करना उचित नहीं है ।।७।। मकरन्द - देव! विशेष चिह्न भी है। युवराज- तब तो विवाद के लिए अवकाश कहाँ ? मकरन्द — देव! सोने के ईटों की जो पेटियाँ हैं, उन सब पर मेरा नाम अति है। Jain Education International युवराज- देवशर्मन् ! सोने की पेटियों सहित स्वर्णकार को बुलाओ । ( देवशर्मा निकल जाता है | ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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