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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
समूलकाषं कषतां द्विषन्महीं, शिशून् पितृभ्यां हरतां च निर्दयम् ।
अपक्षपातेन यदर्थनिर्णय
स्तदेव धर्मः किमपि क्षमाभुजाम् ।। ६ ।।
ततः किम् ?
चारायणः
युवराज:
-
समानशील- सन्तान - युक्ति-व्यापारयोर्द्वयोः । विना विशेषचिह्नेन युक्तो नैकत्र निर्णयः ।।७।।
मकरन्दः- देव ! विशेषचिह्नमप्यस्ति ।
युवराज:- कोऽवकाशस्तर्हि विवादस्य ?
मकरन्द:
-
- देव! सुवर्णेष्टिकासम्पुटानि यानि तानि सर्वाण्यपि मन्नामाङ्कितानि । युवराज : - देवशर्मन् ! ससुवर्णसम्पुटं सुवर्णकारमाकारय ।
(देवशर्मा निष्क्रान्तः । )
शत्रु के राज्य को पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करने वाले और माता-पिता से भी उनके बच्चों का निर्दय होकर (दण्ड देने हेतु ) हरण करने वाले राजाओं का यही धर्म है कि वे किसी विवाद का निर्णय विना पक्षपात के करें ।। ६ ।।
चारायण - उससे क्या ?
युवराज — दोनों का स्वभाव, सन्तान, तर्क और कार्य समान होने के कारण विना किसी विशेष चिह्न के किसी एक के पक्ष में निर्णय करना उचित नहीं है ।।७।। मकरन्द - देव! विशेष चिह्न भी है।
युवराज- तब तो विवाद के लिए अवकाश कहाँ ?
मकरन्द — देव! सोने के ईटों की जो पेटियाँ हैं, उन सब पर मेरा नाम अति है।
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युवराज- देवशर्मन् ! सोने की पेटियों सहित स्वर्णकार को बुलाओ । ( देवशर्मा निकल जाता है | )
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