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नवमोऽङ्कः खलु कृत्वा नातीतव्यसनशोचनम्। आजन्म यानि जायन्ते व्यसनानि सहस्रशः। स्मर्यन्ते तानि चेन्नित्यं कोऽवकाशस्तदा मुदाम्?।।५।। भवतु, प्रणमामि। युवराज:- अये वाणिज्यकारक! किंनिदानोऽयं नरदत्तेन सह विवादः?
मकरन्द:- (सविनयम्) देव ! सुवर्णद्वीपात् प्रतिनिवृत्तस्य ममायं पटच्चरवृत्तिर्नरदत्तः सङ्घटितः। क्रय-विक्रयकौशलानुरञ्जितेन च मया स्वसार्थे प्रधानः कृतः। अयं चेदानीं 'मदीयोऽयं सार्थः, न ते किमपि लभ्यमस्ति' इति व्याहरति।
(युवराज: स्मित्वा चारायणमुखमवलोकयति।) चारायण:- देव ! क्रमागतोऽयं नरदत्तः, तदस्य सत्येषु नः सम्प्रति प्रतिपत्तिरस्ति, देशान्तरिणः पुनरस्य स्वरूपं नावगच्छामः।
युवराज:- अमात्य!
अथवा अतीतविषयक विपत्तियों के विषय में सोचना व्यर्थ है, क्योंकि जीवनपर्यन्त जो हजारों विपत्तियाँ आती रहती हैं, यदि सदा उन्हीं का स्मरण किया जाय तो जीवन में सुख का अवसर कहाँ? ।। ५ ।।
अच्छा, प्रणाम करता हूँ। युवराज- अरे व्यापारी! नरदत्त के साथ यह विवाद किस कारण?
मकरन्द- (विनयपूर्वक) देव! सुवर्णद्वीप से वापस आते समय मुझे यह चोर नरदत्त मिला। इसके क्रय-विक्रय के कौशल से प्रसन्न होकर मैंने इसको अपने दल का प्रधान बना दिया और अब यह कहता है 'यह समस्त धन मेरा है, तम्हें इसमें से कुछ भी नहीं मिलेगा।'
(युवराज मुस्कुराकर चारायण का मुँह देखते हैं।) चारायण- देव! यह नरदत्त खानदानी व्यापारी है, अत: इसकी बात पर मुझे विश्वास है; किन्तु इस परदेशी के स्वरूप को मैं नहीं जानता।
युवराज-अमात्य!
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