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________________ १४४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मस्मत्पातालभवनमधिवसतु। एकाकिनः पुनः पुरुषस्य न समुचितः परदाराणां मध्येऽधिवासः, ततस्त्वं कियन्तमपि कालं क्वचिदपि गत्वाऽतिवाहय। (पुरुषो निष्क्रान्तः।) मकरन्दः- (सभयमात्मगतम्) ममापि कौमुदी-सुमित्रे पातालभवनमधिवासयितुमुचिते। कापालिक:- अद्य पुनर्निशीथसमये मन्त्रेण तन्त्रेण चतंदुरात्मानमाकृष्य मोचयिष्यामि निःशेषमप्यपहृतं यौवतम्। (पुनर्विमृश्य) कोऽत्र भोः? प्रविश्य तापस:- एषोऽस्मि। कापालिक:- मायामय! आकारय कियतीरपि युवतीर्येनेयं ताभिर्विदितमार्गाभिः सह पातालवेश्मनि प्रविशति। (तापसो निष्क्रान्तः।) सुन्दरियों के साथ दो रात हमारे पाताल-भवन में रहे। किन्तु अकेले पुरुष का परस्त्रियों के बीच रहना उचित नहीं है, अत: तुम कहीं अन्यत्र जाकर कुछ समय व्यतीत करो। (पुरुष निकल जाता है।) मकरन्द- (भयपूर्वक मन ही मन) मेरे लिए भी कौमुदी एवं सुमित्रा को पाताल-भवन में रखवाना ही उचित है। कापालिक- आज पुनः रात में मन्त्र एवं तन्त्र से उस दुरात्मा को बुलाकर सभी अपहृत युवतियों को मुक्त कराऊँगा। (पुन: सोचकर) अरे! यहाँ कौन है? (प्रवेश कर) तापस- मैं हूँ। कापालिक- मायामय! कुछ युवतियों को बुलाओ जिससे उस रास्ते से परिचित उन युवतियों के साथ यह पाताल-भवन में प्रवेश कर सके। (तपस्वी निकल जाता है।) १. मध्ये निवास: क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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