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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् मस्मत्पातालभवनमधिवसतु। एकाकिनः पुनः पुरुषस्य न समुचितः परदाराणां मध्येऽधिवासः, ततस्त्वं कियन्तमपि कालं क्वचिदपि गत्वाऽतिवाहय।
(पुरुषो निष्क्रान्तः।) मकरन्दः- (सभयमात्मगतम्) ममापि कौमुदी-सुमित्रे पातालभवनमधिवासयितुमुचिते।
कापालिक:- अद्य पुनर्निशीथसमये मन्त्रेण तन्त्रेण चतंदुरात्मानमाकृष्य मोचयिष्यामि निःशेषमप्यपहृतं यौवतम्। (पुनर्विमृश्य) कोऽत्र भोः?
प्रविश्य तापस:- एषोऽस्मि।
कापालिक:- मायामय! आकारय कियतीरपि युवतीर्येनेयं ताभिर्विदितमार्गाभिः सह पातालवेश्मनि प्रविशति।
(तापसो निष्क्रान्तः।)
सुन्दरियों के साथ दो रात हमारे पाताल-भवन में रहे। किन्तु अकेले पुरुष का परस्त्रियों के बीच रहना उचित नहीं है, अत: तुम कहीं अन्यत्र जाकर कुछ समय व्यतीत करो।
(पुरुष निकल जाता है।) मकरन्द- (भयपूर्वक मन ही मन) मेरे लिए भी कौमुदी एवं सुमित्रा को पाताल-भवन में रखवाना ही उचित है।
कापालिक- आज पुनः रात में मन्त्र एवं तन्त्र से उस दुरात्मा को बुलाकर सभी अपहृत युवतियों को मुक्त कराऊँगा। (पुन: सोचकर) अरे! यहाँ कौन है?
(प्रवेश कर) तापस- मैं हूँ।
कापालिक- मायामय! कुछ युवतियों को बुलाओ जिससे उस रास्ते से परिचित उन युवतियों के साथ यह पाताल-भवन में प्रवेश कर सके।
(तपस्वी निकल जाता है।)
१. मध्ये निवास: क।
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