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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पल्लीपति:- अरे सर्पकर्ण! गत्वा ब्रूहि कङ्कालकम्। यथा-नरदत्तः सुखं धरणीयः, अपरथा लक्ष्मीपतिर्युवराजः क्रोत्स्यति।
(सर्पकों निष्क्रान्तः।)
(प्रविश्य) पुरुषः-- भट्टा! लच्छीवइणा पेसिदो पुरिसो तुम्हाणं दंसणमिच्छदि। (भर्तः ! लक्ष्मीपतिना प्रेषितः पुरुषः युष्माकं दर्शनमिच्छति।) पल्लीपतिः- (साशङ्कम्) शीघ्रमानय।
___ (पुरुषो निष्क्रान्तः।)
प्रविश्य लेखहारकः लेखमर्पयति।) पल्लीपतिः- (उत्थाय गृहीत्वा वाचयति) स्वस्ति, वेलन्धरनगराद् युवराजो लक्ष्मीपतिर्व्याघ्रमुख्यां वज्रवर्माणं सम्बोध्य कार्यमादिशति। यथाअस्माकं परमोपकारी मित्रानन्दनामा वणिक् कौमुदीनाम्न्या कान्तया समं परिभ्राम्यन् क्वचिदपि यदि भवत्पदातिभिः प्राप्यते तदाऽस्मभ्यमुपनेय इति।
पल्लीपति-अरे सर्पकर्ण! जाकर कङ्कालक से कहो कि नरदत्त को सुखपूर्वक रखे, अन्यथा युवराज लक्ष्मीपति क्रोधित हो जायेंगे।
(सर्पकर्ण निकल जाता है।)
(प्रवेश कर) पुरुष-स्वामी! लक्ष्मीपति द्वारा प्रेषित दूत आपके दर्शन करना चाहता है। पल्लीपति-(आशङ्कापूर्वक) शीघ्र ले आओ।
(पुरुष निकल जाता है।) (दूत प्रवेश करके लेख अर्पित करता है।) पल्लीपति-(उठकर लेकर पढ़ता है) कल्याण हो, वेलन्धरनगर से युवराज लक्ष्मीपति व्याघ्रमुखी में वज्रवर्मा को सम्बोधित करके आदेश देते हैं कि हमारा परम उपकारी मित्रानन्द नामक व्यापारी कौमुदी नामक पत्नी के साथ घूमता हुआ यदि कहीं आपके सैनिकों को मिल जाय, तो उसको हमारे पास ले आइये। (पुनः सोचकर
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