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भूमिका
और शकुन्तला की प्रणयकथा वर्णित है। कालिदास ने अपनी कल्पनाशक्ति से मूलकथा में यथोचित परिवर्तन कर उसे अत्यन्त सरस नाटकीय रूप प्रदान किया है। आलोचकों ने मुक्तकण्ठ से इसे नाट्यसाहित्य की सर्वश्रेष्ठ रचना स्वीकार किया है 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला'।
कालिदास के पश्चात् महाकवि 'अश्वघोष' का नाम आता है। ये कुषाण-सम्राट् कनिष्क (७८ ई०) के गुरु एवं राजकवि थे और बौद्धमतावलम्बी थे । 'ल्यूडर्स' ने १९१० ई० में इनके तीन रूपकों का पता लगाया था, किन्तु अभी तक एकमात्र शारिपुत्रप्रकरण उपलब्ध हो पाया है। इसमें ९ अङ्क हैं और इसकी रचना का उद्देश्य मूलतः बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करना है । अश्वघोष के पश्चात् महाकवि 'शूद्रक' की रचना मृच्छकटिक उपलब्ध होती है । शूद्रक का स्थितिकाल अधिकांश विद्वानों के अनुसार ईसा की दूसरी शताब्दी है । मृच्छकटिक १० अङ्कों का एक प्रकरण है जिसमें भासकृत दरिद्रचारुदत्त की कथा ही विस्तृत रूप में वर्णित है। इसमें कवि ने दरिद्र ब्राह्मण चारुदत्त और गणिका वसन्तसेना के निश्छल प्रेम को केन्द्र में रख कर तत्कालीन सामाजिक दशा का अत्यन्त स्वाभाविक और यथार्थ चित्रण किया है।
V
पाँचवीं शताब्दी में 'विशाखदत्त' नाम के सुप्रसिद्ध नाटककार हुए। इनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध हुई हैं जिनमें सर्वाधिक ख्याति मुद्राराक्षस नाटक की है। इस नाटक में मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त (३२२- २९८ ई०पू० ) के प्रधानमन्त्री चाणक्य और नन्दनरेश धननन्द के महामात्य राक्षस के कूटनीतिक दाँव-पेचों का बड़ा ही रोचक और सजीव वर्णन है। दूसरी कृति देवीचन्द्रगुप्त में गुप्तवंशीय नरेश रामगुप्त की दुर्बलता और उसके अनुज चन्द्रगुप्त द्वितीय (३८०-४१४ ई०) की वीरता एवं दोनों के पारस्परिक संघर्ष का अत्यन्त रोचक नाटकीय वर्णन है। तीसरी कृति अभिसारिकावञ्चितक में लोकविश्रुत वत्सराज उदयन के वृत्त का सरस नाटकीय वर्णन किया गया है। विशाखदत्त की उक्त सभी रचनाओं का आधार ऐतिहासिक इतिवृत्त है।
सातवीं शताब्दी में कन्नौजनरेश 'हर्षवर्धन' (६०६-६४८ ई०) ने तीन रूपकों प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द की रचना कर विपुल ख्याति अर्जित की। प्रथम दो रचनाएँ प्रियदर्शिका और रत्नावली उदयन के प्रणयवृत्त से सम्बद्ध चार-चार अङ्कों की नाटिकाएँ हैं और अन्तिम नागानन्द बौद्ध अवदान पर आधृत पाँच अड्डों का शान्तरसप्रधान नाटक है।
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