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________________ 34 शीलदूतम् ६४. यह ज्योतिषियों से पूछ कर जीवन धारण करती थी, अंगुलियों से रेखायें खींच खींच कर किसी प्रकार दिन बिताती थी और द्वार पर जा जा कर पुनः गृह में चली जाती थी। प्रायः प्रिय के वियोग में रमणियों के ये ही मनोविनोद हैं। श्रृंगारं स्वं सुभग ! विरहेडगारवत् संत्यजन्ती दुःखेनाऽलं निजपरिजनं दुःखदिग्धं सूजन्ती। प्रेम्णा बद्धां निपुण ! भवता तां मुहुः संस्पृशन्ती गण्डाभोगात् कठिनविषमामेकवेणी करेण ।।५।। ६५. हे सुभग ! इस ने अपना श्रृंगार अंगार के सगान त्याग दिया है, और दुःख में डूबे अपने परिजनों को और भी दुःखी बना दिया है। हे निपुण ! (कुशल) जिसे आप ने प्रेमपूर्वक बाँधा था, जो कपोलों पर आ जाने के कारण कठोर और विषम (निम्न्नोन्नत) हो गई थी उस वेणी को बार-बार हाथों से स्पर्श करती रहती है। नीता रात्रिः क्षण इव पुरा या त्वयेद्धाऽपि सार्द्ध क्रीडायोगैः सुरतजनितैश्चारुभोगोपभोगैः। निःश्वासौधर्निजतनुगतं धन्दनं शोषयन्ती तामेवोष्णौर्विरहजनितैरश्रुभिव्यपियन्ती।।६।। ६६. पहले अपने शरीर पर स्थित चन्दन को उच्छवासों के प्रवाह से सुखाते हुये जो प्रकाश-पूर्ण रात्रि आप के साथ क्रीडाओं एवं सुरतजनित सुन्दर भोगों और उपभोगों से क्षण के समान बीत जाती थी उसी को विरह-जनित उष्ण अश्रुओं से व्याप्त करती रहती है। दत्तवा दुःखं मम किमु सुखं हा! विधातस्त्वयाssप्तं ? जानात्यन्यो न हि परगतां वेदनां वाSत्र कश्चित् । निन्दित्वाऽलं विविधवधनैर्दैवमेवं प्रमीला माकांक्षन्ती नयनसलिलोत्पीडरुद्भावकाशाम् ।।६।। ७. "हे विधाता ! हाय, मुझे दुःख देकर तुम ने कौन सा सुख पा लिया है ? यहाँ दूसरे की व्यथा को अन्य कोई नहीं जानता है।" इस प्रकार विविध वचनों से दैव की पर्याप्त निन्दा कर के अश्रु-भार के कारण स्थान न पाने वाली निद्रा की आकांक्षा करती रहती है। संमृज्याश्रुप्लुतमय निजं दिक्षु घक्षुः क्षिपन्ती क्षोमान्तेन स्वमनसि जगज्जानती शून्यमेतत् । स्मृत्वा स्मृत्वा तव गुणगणं भूमिपीठे लुठन्ती साभ्रेऽहनीव स्थलकमलिनी न प्रबुद्धा न सुप्ता।198।। ६८. फिर रेशमी आंचल के छोर से पोंछ कर, अश्रु-पूर्ण नयनों को दिशाओं में डालती हुई, अपने मन में इस जगत को शून्य समझती हुई आपके गुण-गणों को बार-बार स्मरण करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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