SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 शीलदूतम् समान शिप्रा का शीतल वायु संताप दूर कर देता है वैसे ही यहाँ देवनदी संताप दूर कर देती पश्य स्वामिन ! सुविपुलमिदं पाटलीपुत्रद्रङगं गंगोत्संगे नृपतितिलकः कोणिकोऽस्थापयद् यत्। यस्याऽऽहो । विविधमणिभिः पूरितस्य क्षमायां संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ।। ३४।। ३४. हे स्वामी ! इस विस्तृत पाटलीपुत्र नगर को देखें। नृपति-श्रेष्ठ कोणिक ने गंगा की गोद में इस की स्थापना की थी। अहा ! विविध मणियों से पूर्ण इस नगर के आगे पृथ्वी पर समस्त समुद्र ऐसे लगते हैं जैसे उनमें अब केवल जल रह गया है ( रत्न निकाल लिये गये हैं। आधं नन्दं नृपतिमवधीदा वैरोचनः प्रागत्रारामः सततफलदोवाभवत् तस्य राज्ञः। अत्रोदायिप्रभुरपि हतः पापिना तेन दम्भा दित्यागन्तुन रमयति जनो यत्रबन्धूनभिज्ञः।। ३५।। ३५. "पहले यहाँ वैरोचन नामक मन्त्री ने प्रथम नन्द नूप का वध किया था। उसी राजा का निरन्तर फल देने वाला उपवन था। यहीं उस पापी वैरोचन के द्वारा दम्भपूर्वक राजा उदायी भी मार दिया गया था" -- इस प्रकार वृतान्त को जानने वाला व्यक्ति नवागन्तुक बन्धुओं का मन बहलाता है। खिन्नोऽसि त्वं घिरविधरणाद् दृश्यतेऽनीदृशस्ते देहस्तन्नो निजपरिजनेनाऽमुना जल्पसि त्वम् । हर्येष्वेषु प्रिय ! निवसनात् सज्जयास्मिस्तनुं स्वां नीत्वा खेदं ललितवनितापादरागांकितेषु ।। ३६।। ३६. हे स्वामी ! आप चिर विचरण से क्लान्त हो गये हैं। आप का शरीर पहले जैसा नहीं दिखाई दे रहा है। इसी से अपने उस परिजन से बात नहीं कर रहे हैं। हे प्रिय ! ललित कामिनियों के अलक्त से रंजित इन प्रासादों में रह कर अपना शरीर स्वस्थ कर लें। द्रंगोत्संगे सगरतनयाssनीतवाहां वहन्ती गंगामेतां सुभग ! मृगयालोलकल्लोलमालाम्। धर्मस्वेदं हरति कुरुते या रतिं दाग नराणां तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर्मरूमरुभिः ।। ३७।। ३७. हे सुभग ! इस नगर के निकट बहती हुई, चंचल तरंग-मालाओं वाली इस गंगा को देखें, जिस की धारा भगीरथ के द्वारा लायी गई थी। वह धूप और स्वेद हर लेती है और जल-विहार करती हुई तरूणियों के स्नान से सुवासित पवन से मनुष्यों में कामवासना उत्पन्न कर देती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy