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________________ 19 . २६. हे स्वामी ! कामदेव के गृह के समान आप के इस उद्यान में देवगण सुन्दरियों के साथ क्रीडा करते रहते है। यदि यहाँ आप प्रियाओं के स्नेह-स्निग्ध, कामोद्दीपक, एवं चंचल कटाक्षों वाले लोचनों के द्वारा देखे जाने पर भी रमण नहीं करते हैं तो वंचित है। लोलच्छाखाशयविलसितैस्त्वामिवाकारयन्ती भंगालापैरिव तव तपः साम्प्रतं वारयन्ती। वृक्षालीयं कुसुमपुलकं दर्शयन्तीव पश्य स्त्रीणामाद्यं प्रणयि वचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ।। ३०।। ३०. देखिये, यह वृक्ष-श्रेणी मानों शाखा-रूपी हाथों से आप को बुला रही है, मानों भ्रमरों के शब्दों में तुम्हें तप करने से रोक रही है और मानों पुष्पों के रूप में रोमांच का प्रदर्शन कर रही है। प्रिय के प्रति महिलाओं के हाव-भाव ही प्रारम्भिक वचन होते हैं। हीनं दीनं सुभग ! विरहात ते धुताSSहारनीरं पश्येदं मे वपुरूपचितिं याति नान्यैः प्रयोगैः। जाने नाहं बहु निगदितुं त्वद्रियोगतिजातं कार्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ।। ३१।। ३१. हे सुभग ! देखिये आप के वियोग के कारण भोजन और जल का परित्याग कर देने से दुर्बल मेरा शरीर अन्य युक्तियों से वृद्धि को नहीं प्राप्त हो रहा है। मैं अधिक बोलना नहीं जानती हूँ। आप के वियोग-दुःख से उत्पन्न कृशता जिस विधि से दूर हो जायें उसे आप को ही करना चाहिये। गेहं देहं श्रिय इव भवत्कारितं भत्तरतद् भाग्यैर्लभ्यं नय सफलतां स्वोपभोगेनं नाथ ! स्वल्पीभूते स्वकृतसुकृते नाकिनां भूगतानां शेषैः पुण्यैर्हतभिव दिवः कान्तिमत् खण्डमेकम् ।। ३२॥ ३२. हे स्वामी लक्ष्मी के शरीर के समान यह गृह आप के द्वारा निर्मित है तथा भाग्य से प्राप्त हुआ है, इसे अपने उपभोग से सफल बनाइये। यह स्वकृत पुण्यों के स्वल्प हो जाने पर भूलोक में आये स्वर्गवासियों के शेष पुण्य से आहृत स्वर्ग के कान्तिमान् खण्ड के समान है। अंगीकृत्य प्रिय ! गुरुतरां मन्त्रिमुद्रां समुद्रां दानरस्यां पुरि हर चिरं लोकदारिद्यमुद्राम् । यत्रावन्त्यामिव सुरसरिद्धन्ति तापं च शीतः सिप्रा-वातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ।। ३३ ।। ३३. हे प्रियतम ! मुद्रा (सिक्कों या रुपयों) से युक्त, महत्त्वपूर्ण मंत्री की मुद्रा (नामांकित अंगूठी या मोहर) को स्वीकार कर इस पाटलीपुत्र नगरी में चिर-काल तक लोगों की दरिद्रता का चिहन् (मुद्रा) दूर करें। जैसे अवन्ती में रति के लिये प्रिय वचन कहने वाले प्रियतम के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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