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मा मुञ्चेदं धनमनिधनं नाथ ! सम्पूरिताशं सर्व चैनं निजपरिजनं त्वय्यतिस्नेहयुक्तम् । नीतिज्ञोऽपि प्रथितमहिमन् । वेत्सि नैतत्कथं यत् ?
रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय ।। २१।। २१. हे नाथ ! आशाओं को पूर्ण करने वाले स्थायी धन और आप में अतिशय अनुरक्त इस परिजन को मत छोडिये। हे विख्यात-महिम ! आप नीतिज्ञ हो कर भी यह क्यों नहीं समझते कि सभी पदार्थ रिक्त होने पर लघु हो जाते हैं और पूर्ण होने पर भारी (गुरु) हो जाते हैं।
व्यापार मा परिहर वर ! त्वं नृपश्रीशमं तं प्राप्य क्लेशोपममिममहो। संयम मन्त्रिपुत्र ! मुञ्चेच्चिन्तामणिमिह हि कः काचमादाय यस्मिन् ?
सारंगास्ते जललवमुचः सूघयिष्यन्ति मार्गम् ।। २२।। २२. हे श्रेष्ठ मन्त्रिपुत्र ! राजलक्ष्मी का शमन करने वाले क्लेशतुल्य इस संयम को प्राप्त कर उस व्यापार (ऐश्वर्य- भोग) का परित्याग मत कीजिये जिसमें जल-सीकरों को गिराते हुये गजेन्द्र तुम्हारे मार्ग की सूचना देंगे। अरे ! कौन यहाँ ऐसा है जो काच को लेकर चिन्तामणि का परित्याग कर दे।
तीवं यत्त्वं तपसि सुतपो देवलोकाशयेह स्त्रीसम्भोगादपरमरिरे ! नास्ति तत्रापि सौख्यम्। गेहस्थस्तद्रवय सुधिरं स्वर्गसौख्याधिकानि
सोत्कण्ठानि प्रियसहघरी संभ्रमालिंगितानि ।। २३ ।। २३. हे अरिरे ! (काम क्रोधादि शत्रुओं को जीतने वाले) यहाँ आप स्वर्ग की आशा से श्रेष्ठ और उग्र तप कर रहे हैं तो उस (स्वर्ग) में भी स्त्रीसंभोग से बढ़ कर कोई सुख नहीं है, अतः गृहस्थ रह कर अपनी प्रिय सहचरी का उत्सुकता-पूर्वक हाव-भाव से युक्त स्वर्गसुखातिशायी आलिंगन कीजिये।
नीत्वा नीत्या कतिपयदिनं यौवनं गेहवासे भुक्त्वा भोगानवनिवलये नाथ ! तत्वा स्वकीर्तिम् । वार्द्धक्येऽव प्रिय ! निजजनैः साश्रुग्भिवताय
प्रत्युद्यातः कथमपि भवान् गन्तुमाशु व्यवस्येत् ।। २४ ।। २४. हे नाथ ! हे प्रिय ! कुछ दिनों तक गृहस्थाश्रम में रहकर नीतिपूर्वक यौवन व्यतीत कर भोगों को भोग कर और भूमंडल में कीर्ति का विस्तार कर पुनः वृद्धावस्था में जब आत्मीयजन साश्रु नेत्रों से स्वागत करें तब आप किसी प्रकार शीघ्र सन्यास के लिये जाने की चेष्टा करें।
ताते याते त्रिदशभवनं युष्मदाशानिबद्धा ये जीवन्ति प्रिय ! परिहरंस्तान्न किं लज्जसे त्वम् ?
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