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________________ 16 शीलदूतम् १६. ऐसा मानती हूँ कि आप का हृदय वज्र के समान कठोर हो गया है। इसीलिये आप मुझे अनुरक्त दृष्टि से नहीं देख रहे हैं। हे देव ! उत्तर की ओर किंचित् पीछे हटकर थोड़ी दूर पर देखें, यह सारिका भी आप से नहीं नहीं कह रही है। आलापैस्त्वां मृगय मुदितः कोमलैः कोकिलायाः क्रीडारामो भवदुपवितः स्वागतं पृच्छतीव। नो नीचोऽपि प्रणयनिभृते भाग्यलभ्ये घिराना प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं पुनर्यस्तथोच्चैः ? ।। १७॥ १७. आप के आगमन से प्रमुदित यह क्रीडोद्यान कोकिलों की मधुर ध्वनि के द्वारा मानों स्वागत प्रश्न कर रहा है। नीच व्यक्ति भी दीर्घ काल के पश्चात् सौभाग्य से अपने प्रेमी मित्र के मिलने पर विमुख नहीं होता है तो फिर जो (उद्यान) उतना उन्नत (वृक्षों के कारण) है उस का क्या कहना है। द्रले मासान्नव किल यया मध्यमध्ये सुधीमन् ! वृद्धिं नीतः सरसमधुराहारयोगाद् भवान् वा। गेहस्थोऽपि प्रिय ! गुरुगुणां मातरं मानयनां सद्भावाः फलति न चिरेणोपकारो महत्सु।।१८।। १८. हे बुद्धिमान् जिस ने आप को नौ मासों तक गर्भ में धारण किया और जिसने सरस एवं मधुर आहार के संयोग से आप को बड़ा बनाया उस श्रेष्ठ गुणों वाली माता की आज्ञा का पालन गृहस्थ होकर भी आप कीजिये क्योंकि महान् लोगों पर किया हुआ उपकार बहुत समय बीत जाने पर भी समाप्त नहीं होता है। त्वय्यायाते धरणिरमणीसारश्रृंगाररूपे प्रासादोऽयं प्रिय ! निजरूचा जेष्यति स्वर्गलोकम् । विष्वक्शुद्धस्फटिकरधितस्त्विन्द्रनीलाग्रभागो मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ।।१६।। १६. हे प्रिय ! भूतल की रमणियों में श्रेष्ठ सुन्दरी ( अर्थात् कोशा) के श्रृंगाररूप आपके (स्थूलभद्र के) आ जाने पर चारों ओर से शुद्ध स्फटिक से जटित एवं अग्रभाग में नीलम से युक्त यह भवन पृथ्वी (रूपी रमणी) के अग्रभाग में नीले और शेष भाग में पीले वक्षस्थल के समान शोभित होकर सुन्दरता से स्वर्ग को भी जीत लेगा। क्रीडाशैले कलय विपुले निर्झराली किलतां यत्रावाभ्यां श्रमहतिकृते क्रीडितं नाथ ! पूर्वम् । यामालोक्याकलयति कलं चित्रमत्रत्यलोको भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य।।२०।। २०. नाथ ! विस्तृत क्रीडा-पर्वत पर इस निर्झर-श्रेणी को देखिये जहाँ पहले हम दोनो श्रम दूर करने के लिये क्रीडा करते थे और जिस को यहाँ के लोग हाथी के शरीर पर रेखाओं से रचित सजावट समझते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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