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विश्वनाथ पाठक
शीलदूत खण्ड काव्य है। इसकी कथा वस्तु अत्यन्त संक्षिप्त है। स्थूलभद्र और कोशा प्रमुख पात्र हैं। चतुरा का उपयोग संवाद को गतिशील बनाने के लिये किया गया है। संवादात्मक होने के कारण इसमें घटना-वैचित्र्य के लिये कोई स्थान नहीं है।
काव्य की भाषा सरल और अकृत्रिम है। दीर्घ समासों और जटिल शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं है। एक स्थल पर अरिरे सम्बोधन अप्रचलित होने के कारण चित्र में वैरस्य अवश्य उत्पन्न कर देता है। काव्य की प्रासादिक शैली और प्रांजलता मन को मुग्ध कर लेती है। छन्दों का प्रवाह दर्शनीय है। अलंकारों का रसानुकूल प्रयोग किया गया है। बलात् अलंकार ठूसने की प्रवृत्ति नहीं है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, श्लेषादि अलंकार नितान्त सहज भाव से आ जाते हैं। अधिकतर पूर्तियों में मेघदूत के ही अलंकार दिखाई देते हैं। एकहत्तरवें श्लोक में सरोग शब्द का श्लेष अति स्वाभाविक और अप्रयत्न-साध्य प्रतीत होता है।
काव्य में विप्रलंभ श्रृंगार का पूर्ण परिपाक दिखाई देता है। नायिका कोशा की विरहावस्था का मर्मस्पर्शी वर्णन प्रत्येक भावुक मन को द्रवीभूत कर देता है। चिन्ना, दैन्य वितर्क, स्मृति अभिलाष वितर्क आदि भाव विप्रलम्भ के अंग के रूप में आकर उसे परिपुष्ट करते हैं।
शीलदूत की कथा वस्तु शान्तरस के सर्वथा अनुकूल है। नायिका का विपयोपभोग के लिये निरतिशय लालायित एवं चपल मन अन्त में नायक के विरक्तिपूर्ण उपदेशों से उपशान्त हो जाता है। इतनी अनुकूल कथावस्तु ग्रहण करके भी कवि काव्य को शान्तरस-प्रधान नहीं बना सका। उसने विप्रलम्भ श्रृंगार का जिस तत्परता से विस्तृत वर्णन किया है उतनी तत्परता शान्तरस के वर्णन में नहीं दिखाई है। 131 श्लोकों के काव्य में लगभग 96 श्लोकों में विप्रलम्भ का परिपुष्ट वर्णन है। उस की अपेक्षा शान्त रस का संक्षिप्त वर्णन प्रभावहीन और निष्प्राण है। वह कतिपय श्लोकों में ही सीमित रहकर पंगु हो गया है।
शीलदत का नायक वीतराग योगी है और नायिका है सांसारिक भोगों के लिये निरन्तर ललकती अतृप्त तरुणी। दोनों की चित्तवृत्तियों में आकाश और पाताल का अन्तर है। कवि ने नायिका के भाव परिवर्तन के पूर्व उसके हृदय के सूक्ष्म आन्तरिक द्वन्द्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण का लेशमात्र भी प्रयास नहीं किया है जिस से काव्य की स्वाभाविकता और रसात्मकता को पर्याप्त क्षति पहुंची है। साथ ही उसने नायक निष्ठ निर्वेद का ऐसा बिग्बग्राही एवं प्रभावशाली वर्णन भी नहीं किया है जिससे कोशा विषय-विरक्त हो जाती। काव्य के अधिकांश भाग में विप्रलम्भ श्रृंगार छाया हुआ है। अन्त में कतिपय श्लोकों में शान्तरस (निर्वेद) की सूचना दी गई है। "मैं ने जैनधर्म ग्रहण कर लिया है। मैं वीतराग हूँ। नारी मेरे लिये विष के समान है, तुम जैन धर्म स्वीकार कर लो।" इत्यादि वर्णनों से किसी विरह-दग्ध विलासिनी तरुणी के विचारों में परिवर्तन नहीं होता है और न यह शान्तरस का वर्णन है। यह तो एक प्रकार की सूचना मात्र है। कवि भावक होता है, सूचक नहीं। उसके कृतित्व का साफल्य श्रोता या पाठक को प्रतिपाद्य भाव की अनुभूति में तल्लीन कर देने में है, सूचना देने में नहीं। सूचना में बोध मात्र होता है, तल्लीनता नहीं होती है। रस का सम्बन्ध इसी तल्लीनता से है। शीलदूत के अन्तिम वर्णनों से
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