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________________ शीलदूतम् अपनी सहचरी बना लेते हैं। इसके विपरीत शीलदूत में स्थूलभद्र कोशा को साथ नहीं ले जाता है, उसे घर पर ही छोड़ देता है। नेमिदृत में नेमिनाथ मोक्ष प्राप्त करते हैं और राजीमती भी उन के उपदेशों पर चलकर भव-बन्धनों से मुक्त हो जाती है। शीलदूत में स्थूल भद्र और कोशा दोनों स्वर्ग प्राप्त करते हैं। इस प्रकार दोनों काव्यों में फलागम की दृष्टि से प्रभूत अन्तर है। समीक्षा शीलदूत केवल पादपूर्त्यात्मक काव्य है। मेघदूत की पादपूर्ति होने पर भी इसमें पूर्व और उत्तर खण्डों का विभाजन नहीं है। पादपूर्ति में कवि स्वतन्त्र नहीं होता है। निर्दिष्ट पाद की पूर्ति कर देना ही उसका प्रमुख उद्देश्य रहता है। इससे प्रायः पूर्ति काव्यों में दुरुहता आ जाने की सम्भावना रहती है। शीलदूत इस दोष से सर्वथा मुक्त है। इस की उदात्त प्रासादिक शैली की सहजता से आभास ही नहीं होता कि यह एक पूर्ति काव्य है। वर्णनों की सरसता कल्पना की पेशलता, भावों का तारल्य, अलंकारों का समुचित विन्यास, रसानुकूल पदयोजना और छन्दों का उन्मुक्त प्रवाह देखते ही बनता है। पूर्तियों की सटीकता और स्वाभाविकता इसे मौलिक काव्य के स्तर पर पहुँचा देती है। कवि ने मेघदूत के विभिन्न प्रसंगों में प्रतिबद्ध श्लोकों की पादपूर्ति के निमित्त अलका के स्थान पर पाटलीपुत्र नगरी, गम्भीरा, निर्विन्ध्या और शिप्रा के स्थान पर गंगा और कैलास के स्थान पर क्रीडा-शैल की उद्भावना की है। उसने कोशा के विरह और प्रणय के वर्णन में रसानुकूल अनेक प्रसंगों की अवतारणा के द्वारा मौलिक प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। काव्य में अनेक स्थलों पर तो मेघदूत के श्लोकों के समान ही वर्णन-भंगिमा दिखाई देती है। अनेक पूर्तियों में कवि ने मेघदूतीय श्लोक-पादों में अर्थ परिवर्तन कर अद्भुत चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। पच्चीसवें श्लोक में दशार्ण का दसजनों का ऋणी, ग्यारहवें में राजहंस का श्रेष्ठ राजा और एक सौ तेरहवें श्लोक में कृतान्त शब्द का सिद्धान्त के अर्थ में प्रयोग कवि के वैचक्षण्य का द्योतक है। कहीं-कहीं पूर्ति की प्रासंगिकता के लिये पूरणीय पाद में ईषत् परिवर्तन कर दिया गया है। उदाहरण के लिये इस श्लोक में गणपति के स्थान पर गुणपद का प्रयोग द्रष्टव्य है -- मा जानीष्व त्वमिति मतिमन् ! यद व्रतेनैव मुक्ति लेभे श्वभ्रं व्रतमपि चिरं कण्डरीकः प्रपाल्य। गार्हस्थ्येऽपि प्रिय भरतवमीत रागदिदोषाः संकल्पन्ते स्थिर गुणपदप्राप्तये श्रद्धधानाः ।। 59 ।। इस प्रवृत्ति से पूर्तिकर्ता की अक्षमता सूचित होती है। श्लोक संख्या दो में भद्रबाहु के लिये 'वप्रक्रीड़ा परिणत गजप्रेक्षणीय' का प्रयोग मनोज्ञ नहीं है क्योंकि दोनों में साम्य का आधार नितान्त क्षीण है। इसी प्रकार एक सौ तीसवें श्लोक में उत्तमपुरुष में चक्रे क्रिया का प्रयोग भी खटकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002079
Book TitleShildutam
Original Sutra AuthorCharitrasundar Gani
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages48
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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