________________
व्याख्या-साहित्य, तत्त्वार्थ और उसकी टीकाओं में ध्यान संबंधी विवरण अल्प ही है। यदि साध्वी श्री तुलनात्मक दृष्टि से विवेचन करते हुए यह दिखाने का प्रयास करती कि ध्यान के विभिन्न पक्षों को लेकर इनमें किस-किस प्रकार से परिवर्तन और विकास हुआ है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव कैसे आया है, तो इस कृति का महत्त्व अधिक बढ़ जाता। साध्वीश्री ने उमास्वाति के प्रशमरति प्रकरण, जिनभद्र के झाणज्झयण (ध्यानशतक), अज्ञातकृत ध्यानविचार, पूज्यपाद के समाधिशतक, योगीन्दु के परमार्थप्रकाश और योगसार, हरिभद्र के योगबिन्दु, योगशतक, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका एवं षोडषक, शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र के योगशास्त्र, मुनि सुन्दरसूरि के अध्यात्मकल्पद्रुम, यशोविजय के अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद एवं ज्ञानसार, देवचन्द्र की ध्यानदीपिका, न्यायविजय के अध्यात्म-तत्त्वालोक आदि ध्यान तथा योग संबंधी स्वतंत्र ग्रंथों का भी निर्देश किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि उन्होंने योग और ध्यान संबंधित विस्तृत साहित्य का परिशीलन किया है। निश्चय ही यह साहित्य जैन साधना की अमूल्य निधि है।
तृतीय अध्याय 'जैन साधना और उसमें ध्यान का स्थान' से संबंधित है। इस संपूर्ण अध्याय में सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को आधार बनाकर संपूर्ण जैनाचार को संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया गया है। इसमें तप के भेद-प्रभेदों की चर्चा के प्रसंग में ध्यान का उल्लेख हुआ है। इस अध्याय की विशेषता यह है कि इसमें समाधि मरण के साथ-साथ प्रतिमावहन और विभिन्न प्रतिमाओं की भी विस्तृत चर्चा की गई है। प्रतिमावहन जैन साधना और ध्यान-पद्धति का एक समन्वित रूप है। जैन परम्परा में साधना की दृष्टि से अनेक प्रतिमाओं (तप एवं ध्यान की विशिष्ट विधियों) का विवरण उपलब्ध होता है। इस अध्याय के अन्त में जैन धर्म में ध्यान साधना का क्या महत्व है? इसकी भी चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय विशेष रूप से जैन धर्म में ध्यान के स्वरूप का प्रतिपादन करता है। शताधिक पृष्ठों के इस अध्याय में ध्यान के विभिन्न पक्षों का विस्तृत विवेचन हुआ है। ग्रंथ का पंचम अध्याय ध्यान के प्रकारों से संबंधित है। इसमें आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के स्वरूप लक्षण और भेद आदि की शताधिक पृष्ठों में चर्चा की गई है। षष्टम अध्याय में मुख्य रूप से ध्यान की उपलब्धियों की चर्चा की गई है। ध्यान के शारीरिक मानसिक लाभों की चर्चा के साथ-साथ इसमें परम्परागत दृष्टि से ध्यान-साधना से उपलब्ध लब्धियों (सिद्धियों) का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है, यद्यपि यहां वैज्ञानिक दृष्टि से इनकी समीक्षा की आवश्यकता प्रतीत होती है। परिशिष्ट में तप साधना संबंधी विभिन्न चित्र और पारिभाषिक शब्दों को दिये जाने के कारण ग्रंथ की
उनसठ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org