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________________ जिनकल्पिक - गच्छ से पृथक् होकर उत्कृष्ट चरित्र साधन के लिए प्रयत्नशील होना। यह आचार जिन - तीर्थंकरों के आचार के सदृश कठोर होता है; अतः जिनकल्प कहा जाता है। इसमें साधक जंगल आदि एकांत स्थान में एकाकी रहता है। रोग आदि के उपशमन के लिए प्रयत्न नहीं करता। सर्दी, गर्मी आदि प्राकृतिक कष्टों से विचलित नहीं होता । देव, मानव, तिर्यंच आदि के उपसर्गों से भयभीत होकर अपना मार्ग नहीं बदलता । अभिग्रह पूर्व भिक्षा ग्रहण करता है और रात दिन ध्यान तथा कायोत्सर्ग में लीन रहता है। यह साधना विशेष संहनन युक्त साधक के द्वारा विशिष्ट ज्ञान संपन्न होने के पश्चात् ही हो सकती है। जिनमार्ग - वीतराग द्वारा प्ररूपित धर्म । जीव - जो प्राणों को धारण करे, उसे जीव कहते हैं। प्राण के दो भेद हैं- द्रव्य प्राण और भाव प्राण। द्रव्यप्राण के १० भेद स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये५ इंद्रियों, तीन बल (काय, वचन, मन) तथा आयु और श्वासोच्छ्वास, ज्ञान, दर्शनादि स्वाभाविक गुणों को भावप्राण कहते हैं। इन दोनों प्राणों से जीता था, जीता है और जीएगा उसे जीव कहते हैं। जीवविपाकी प्रकृति - जो प्रकृति जीव में ही उसके ज्ञानादि स्वरूप का घात करने रूप फल देती है। जीवसमास (जीवस्थान) - जिन समान पर्याय रूप धर्मों के द्वारा अनंत जीवों का संग्रह किया जाता है, उन्हें जीवसमास या जीवस्थान कहते हैं। जुगुप्सा - जिस कर्म के उदय से अपने दोषों का संवरण और पर के दोषों का प्रकाशन किया जाता है, वह जुगुप्सा नो - कषाय है। नयुत - चौरासी लाख नयुतांग का एक नयुत होता है। नयुतांग - चौरासी लाख प्रयुत के समय को नयुतांग कहते हैं। नरक - अधोलोक के वे स्थान जहाँ घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए उत्पन्न होते हैं। नरक सात हैं- (१) रत्नप्रभा - कृष्णवर्ण भयंकर रत्नों से पूर्ण (२) शर्कराप्रभा - भाले, बरछी आदि से भी तीक्ष्ण कंकरों से परिपूर्ण (३) बालुकाप्रभा - भड़भूंजे की भाड़ की उष्ण बालू से भी अधिक उष्ण बालू (४) पंकप्रभा - रक्त, मांस और पीब जैसे कीचड़ से व्याप्त । (५) धूमप्रभा राई, मिर्च के धूएँ से भी अधिक खारे धुएँ से परिपूर्ण (६) तमः प्रभा - घोर अंधकार से परिपूर्ण (७) महातमः प्रभा - घोराति घोर अंधकार से परिपूर्ण । ५३६ नलिन - चौरासी लाख नलिनांग का एक नलिन होता है। नलिनांग - चौरासी लाख पद्म का एक नलिनांग होता है। Jain Education International जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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