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हुए समतारस को धरती पर रसलोलुप वणिक की तरह उंडेल देता है। वेगवान घोड़े की भांति मन घोड़े पर चढ़ा हुआ साधक गुणों की लगाम को वश नहीं कर सकता है। मन पवन अति बलवान है जो सुमतिवृक्षों को तोड़ फोड़ कर छिन्नभिन्न कर देता है। मनोनिग्रह न करने के कारण भव भ्रमण बढ़ाने में तन्दुलमत्स्य की तरह कारण बनता है। वचन और काया की अपेक्षा चंचल मन से ही अधिक कर्म बंध होता है।८४ मोक्षाभिलाषी साधक के लिये मनबंदर को वश करना ही चाहिये। आत्मा असंख्यातप्रदेशी है। उसके एक-एक प्रदेश पर अनन्त ज्ञानदर्शनचारित्रादि गुण विद्यमान है। उन गुणों को विकसित करने के लिये मन की स्थिरता आवश्यक है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप में रमण करने से मन स्थिर होता है जिससे समभाव की दशा प्रगट होती है। इसके लिये चित्तशोधन की क्रिया आवश्यक है। मलशुद्धि के बिना रोगी को रसायन हितकारी बन सकेगा क्या? आध्यात्मिक रोगी के लिये, मन शोधन शिवरमणी को पाने के लिये बिना औषधि का वशीकरण मंत्र है। जैसे अंधे के लिये दर्पण व्यर्थ है, वैसे ही मनशोधन (मनशुद्धि) के बिना तप, जप, ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय व्रतादि सब व्यर्थ हैं।८५ इसलिये मन शुद्धि के उपायों का सतत चिन्तन करते रहना चाहिये। मनोनिग्रह के उपाय
मन को वश में करने के लिये आगम एवं ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार बताये गये हैं। उनमें से मुख्य-मुख्य उपायों का यहाँ दिग्दर्शन किया जा रहा है -
इन्द्रियविजय : आगम में पाँच प्रकार के इन्द्रियों का वर्णन है८६-श्रोतेन्द्रिय. चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। इन पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय और दो सौ चालीस विकार हैं।८७
श्रोतेन्द्रिय के तीन विषय और बारह विकार हैं - तीन विषय = जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द । ये तीनों प्रकार के विषय शुभ और अशुभ ऐसे दो-दो प्रकार के होते हैं। कुल छह भेद हुए। इन छह पर राग और छह पर द्वेष भाव होना ही बारह प्रकार के विकार हैं।
चक्षुरिन्द्रिय के पाँच विषय और साठ विकार हैं - विषय-काला, नीला, पीला, लाल और सफेद। ये पांच सचित, अचित और मिश्र से पन्द्रह प्रकार के हैं। ये पन्द्रह शुभ और अशुभ ऐसे दो-दो प्रकार के हैं। कुल तीस हुए। तीस पर राग और तीस पर द्वेष ऐसे चक्षुरिन्द्रिय के साठ विकार हैं।
घाणेन्द्रिय के दो विषय और बारह विकार हैं - सुरभिगंध और दुरभिगंध ये दो विषय हैं। ये दोनों सचित अचित और मिश्र के भेद से तीन भेद हुए। तीन शुभ और तीन अशुभ कुल छह विकार हुये। इन छह पर राग और छह पर द्वेष कुल बारह विकार हुये। जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
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