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________________ ध्यानयोग शब्द का अर्थ एवं परिभाषा - आत्मा का शुद्ध स्वरूप ध्यान के बिना प्राप्त हो नहीं सकता। समस्त विकल्पों से रहित आत्मस्वरूप में मन को एकाग्र करना ही उत्तम ध्यान या शुभ ध्यान है।४। ध्यान के साथ योग शब्द को जोड़कर यह स्पष्ट किया जाता है कि प्रशस्त ध्यान का चिन्तन करो। जिस स्वरूप या वस्तु का चिन्तन किया जाता है. वैसा ही स्वरूप मन प्रदेश में प्रत्यक्ष होता है। इसीलिये ज्ञानियों का कथन है कि मानसिक ज्ञान का किसी एक द्रव्य में अथवा पर्याय में स्थिर हो जाना ही ध्यान है। वह ध्यान दो प्रकार का है१५ - शुभ (प्रशस्त) और अशुभ (अप्रशस्त)। ध्यानयोग शब्द का अर्थ प्रशस्त ध्यान है। मन वचन काय की विशिष्ट प्रवृत्ति (व्यापार) ही ध्यानयोग है। उस प्रवृत्ति का निरोध चाहे 'समाधि', 'भावना' या 'संवर' अथवा अन्य किसी भी मार्ग से हो। इन तीनों शब्दों के साथ 'योग' को जोड़ने से 'समाधियोग' 'भावना योग' 'संवरयोग' जिनका अर्थ है प्रशस्त ध्यान अथवा शुभध्यान। शुभ ध्यान से ही मन को एकाग्र किया जा सकता है। अशुभ ध्यान से नहीं। अशुभ ध्यान (आर्त रौद्र) से तीर्यच और नरक गति की प्राप्ति होती है। शुभ ध्यान आत्म स्वरूप का भान कराता है। आत्म स्वरूप का भान होना ही संवर है। संवर की क्रिया प्रारंभ होने पर ही धर्मध्यान की प्रक्रिया शुरू होती है। धर्मध्यान से आत्मध्यान होता है। आत्मध्यान ही श्रेष्ठ ध्यान है। इसलिये ध्यानयोग शब्द का अर्थ है१६ प्रशस्त ध्यान। टीका में 'समाधि' शब्द का अर्थ धर्मध्यान किया गया है। धर्मध्यान का प्रवेशद्वार भावना है। भावना नाव की तरह है। नाव किनारे ले जाती है वैसे भावनायोग से शुद्ध बनी आत्मा समाधियोग से मन को एकाग्र करके शुद्धात्मा या परमात्मा का ध्यान करना ही ध्यानयोग है।१७ ध्यान योग के बल से काय के समस्त व्यापार को रोक कर, उपसर्ग और परीषहों को समता भाव से सहन कर मोक्ष हेतु संयम का अनुष्ठान करना मन वचन काय के विशिष्ट व्यापार को ध्यानयोग कहते हैं।१८ ध्यानयोग में भगवान का या उनके गुणों का चिन्तन किया जाता है। इसके अतिरिक्त षट् द्रव्य, उनके गुण, पर्याय, नौ तत्त्व, पंचास्तिकाय का स्वरूप, कर्म का स्वरूप तथा अन्य विषयों का भी चिन्तन किया जाता है। किन्तु यह चिन्तन की धारा प्रारम्भिक है। सर्व श्रेष्ठ चिन्तन आत्म स्वरूप का ही है ओर वह संवर और निर्जरा से ही प्राप्त हो सकता है।१९ ये दो ही मोक्ष के मुख्य साधन हैं। इन दोनों पर आगे विचार करेंगे। (३) ध्यान का मनोवैज्ञानिक स्वरूप मानव का विकास भौतिक या शारीरिक क्षेत्र में ही न होकर मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी हो रहा है। जिनका मानसिक तनाव अधिक बढ़ जाता है तो उस पर नियंत्रण करने के लिये ध्यान की प्रक्रिया की जाती है। ध्यान प्रक्रिया में शरीर और मन का २६० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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