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(१) ध्यान का सामान्य और विशिष्ट अर्थ
तीसरे और चौथे अध्याय का एक दूसरे के साथ परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। साधना ध्यान के बिना पंगु है और ध्यान साधना के बिना अंधा है। अंधपंगुन्याय की तरह इन दोनों अध्यायों का एक दूसरे से संबंध है। साधना में ध्यान का महत्त्व जानने के बाद उसके स्वरूप को जानना अत्यावश्यक है। इसीलिये इस अध्याय में ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया जा रहा है।
अध्याय ४
जैन धर्म में ध्यान का स्वरूप
ध्यान का सामान्य अर्थ
सामान्यतः ध्यान संबंधी अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं। ध्यान का व्यवहार में सामान्य अर्थ निम्न प्रकार से है' सोचना। विचारना। ध्यान रखना। किसी बात या कार्य में मन के लीन होने की क्रिया, दशा या भाव। चित्त की ग्रहण या विचार करने की वृत्ति या शक्ति का ख्याल । समझ । बुद्धि | स्मृति | याद । ध्यान आना- विचार पैदा होना। ध्यान छूटना - एकाग्रता नष्ट होना। ध्यान जमना ।
ध्यान का विशिष्ट अर्थ
ध्यान का विशिष्ट अर्थ है२ - मानसिक प्रत्यक्ष । मन। बाह्य इन्द्रियों के प्रयोग के बिना केवल मन में लाने की क्रिया या भाव। अन्तःकरण में उपस्थित करने की क्रिया या भाव। केवल ध्यान द्वारा प्राप्तव्य। ध्यान में मग्न । चेतना की वृत्ति चेत । बोध या ज्ञान कराने वाली वृत्ति या शक्ति । चित्त एकाग्र होना । विचार स्थिर होना । प्रशस्त ध्यान ।
(२) ध्यान + योग इन दोनों शब्दों का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ
अनादि काल से मिथ्यादृष्टि जीव चार गति चौबीस दण्डक चौरासी लाख जीवायोनि में परिभ्रमण कर रहा है। परिभ्रमण का मूल कारण मिथ्यात्व ही है । गाढ़ मिथ्यात्व के अंधकार को ध्यान योग की साधना से मंद किया जाता है। ध्यान योग शब्द का विशिष्ट अर्थ आगे स्पष्ट करेंगे।
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ध्यान शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ
ध्यान शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ इस प्रकार है - जिसके द्वारा किसी के स्वरूप
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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