________________
२६९उद्धृत श्रमण भगवान महावीर (गणिकल्याणविजयजी)
पृ. २८५ (परिच्छेद षष्ठ) २७० - (क) जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवुसिए.............. तस्स णं नो एवं भवइ विइयं. वर्थ जाइस्सामि।।
आचारांगसूत्र (आत्मा म.) १/८/६/२१५ (ख) जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं .......तइयं वत्थं जाइस्सामि।।
१/८/५/२१३ (ग) जे मिक्णू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पाय चउत्थेहि तस्स णं नो एवं भवइ चउत्थ वत्थं जाइस्सामि।
आचारांगसूत्र १/८/४/२०८
(छ)
(घ) जैन साहित्य का बृहद इतिहास (भा. १) पृ. ६६ (ङ) जे अचेले परिवुसिए।
आचारांगसूत्र ६/२/१८० (च) “अचेल" अल्पचेलो जिनकल्पिको वा। १/८/७/२२०
आचारांगसूत्र (आ.म. हिंन्दी) पृ. ५०३ एयं खु मुणी आयाणं सया - विरुवरुवे फासे। अहियासेइ अचेले लाघवं आगममाणे।
आचारांग सूत्रं १/६/३/१८२ - कप्पेइ कडिबधणं धारित्तए।
आचारांग सूत्र १/८/७/२२० (ज) उत्तराध्ययनसूत्र - २३/२९ २७१- (क) पत्तं पत्ता बंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिया।
पडलाइं रयत्ताणं च गुच्छओ पाय निज्जोगो।। तिन्नेय य पच्छागा रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती। एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पियाणं तु।। एए चेव दुवालस मत्तग अइरेग चोलपट्टो या एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पम्मि।।
ओघनियुक्ति (भद्रबाहु स्वामी, द्रोणाचार्य वृत्ति) गा. ६६८-६७० (ख) एसो चउदसरूवो उवही पुण थेरकप्पंमि।
प्रवचनसारोद्धार द्वार, ६१ गा. ५०० (ग) पंच कप्प भासं (खमासमणसिरिसंघदासगणि) गा. ८१७-७२३
२४२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org