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११.
(क)
.....पण नव दु अट्ठवीस चठ तिसय दुपणविहं।
कर्मग्रंथ १/३
१/४-४३ तक (ग) गोम्मटसार - कर्मकाण्ड - गा. २२
(घ) उत्तराध्ययन सूत्र ३३/४ - १५ १२. ताण पुड घादिति अघादितिय होति सण्णाओ।
१३.
गोम्मटसार (कर्म. का.) गा.७ आवरण मोहविग्धंघादी जीवगुणवादणत्तादो। आऊणणामगोदं वेयणियं तह अघादिति।।
गोम्मटसार (कर्म-काण्ड) गा. ९ आत्मतत्त्वानभिज्ञस्य य स्यादात्मन्यवस्थितिः। मुह्यत्यन्तः पृथक् कर्तुं स्वरूपं देहदेहिनोः। तयोर्भेदापरिज्ञानानात्मलाभः प्रजायते।। तदभावात्स्वविज्ञानसूतिः स्वप्नेऽपि दुर्घटा।।
ज्ञानार्णव (शुभाचन्द्राचार्य) ३२/२-३ १४. (क) जीवा हवंति विविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा या
परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा या। मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व-कसाएण सुठु आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा।। जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति-जीव-देहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरप्पा य ते तिविहा।। पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया उक्किट्ठा अंतरा होति।। सावय-गुणेहि जुत्ता पमत्त-विरदा य मज्झिमा होति। जिण-वयणे अणुरत्ता उवसम-सीला-महासत्ता।। अविरय-सम्मादिट्ठी होति जहण्णा जिणिंद पय-भत्ता। अप्पाणं णिदंता गुण-गहणे सुठ्ठ अणुरत्ता।। स-सरीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय-सयलत्था। णाण-सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम - सुक्ख - संपत्ता।।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, १०/१९२-१९८
(ख)
योगसार (योगीन्दु) गा. ५-९
१९२
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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