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पाँचवें अध्याय में आगमानुसार भेद-प्रभेदों का एवं आचार्यों के कथनानुसार ध्यान के भेदों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।
छठे अध्याय में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ध्यान का मूल्यांकन किया गया है।
अंत में उपसंहार के रूप में प्रस्तुत शोध प्रबंध की संपूर्ण सामग्री का पुनः एक संक्षिप्त आकलन किया गया है। अध्ययन की परिसीमाः ___'ध्यानयोग' पर प्राचीन एवं अर्वाचीन जैन आचार्यों ने पर्याप्त मात्रा में लिखकर ध्यान परंपरा को पूर्णतः विकसित किया है। ऐसी स्थिति में उसमें कुछ मौलिक स्थापना की संभावना अत्यल्प है। हम जैन साधु - साध्वियों को अपनी दिनचर्या, अनेक विधि - निषेधों की परिसीमा में संचालित करनी पड़ती है। शोध कार्य के लिए अन्य शोधार्थी जो सुविधा अपने लिए प्राप्त कर सकते हैं, उनमें से बहुत सी सुविधाएँ हमें सहज उपलब्ध नहीं हो सकती। पैदल बिहार, चतुर्मास में अविहार और विद्युत् प्रकाश का निषेध, जैसी अनेक कठिनाइयों के कारण, दूर दूर उपलब्ध शोध - साधन - स्रोतों का हम सहज ही उपयोग नहीं कर सकते हैं। फिर भी अपनी अल्पज्ञ बुद्धि के अनुसार संपूर्ण जैन दर्शन में से ध्यानयोग को संकलित करते हुए उसे स्थापित करने का प्रयास किया गया है। उसे चित्रावली के रूप में भी समझाने का प्रयास किया गया है।
समस्त भारत - भूमि में भ्रमण करते हुए जनकल्याणार्थ, सदुपदेश करना साधु - जीवन का एक नैतिक कर्तव्य है - साथ ही - हजारों वर्षों से चली आ रही भारतीय सांस्कृतिक एकता की परंपराओं को टिकाए रखने में साधु समाज का भी योगदान रहा है। इसी दृष्टिकोण के कारण हम लोग राष्ट्रभाषा में अपने प्रवचन संभाषण करते हैं। उक्त भावनाओं के कारण ही प्रबंध को राष्ट्रभाषा हिंदी में लिखने का प्रयास किया गया है। हम साधुओं की राष्ट्रभाषा का अपना एक अलग रूप होता है। विश्व विद्यालयीन स्तर की परिष्कृत भाषा की तुलना हमारी सधुक्कड़ी भाषा से नहीं हो सकती। मराठी तथा विभिन्न प्रांतीय जनभाषाओं के नित्य संपर्क में आने के कारण, हमारी भाषा की शब्दावली, वाक्यसारिणी और शैली में परिष्कृत हिंदी से कुछ अलगाव आ जाना स्वाभाविक है। आशा है सुधीजन हमारी भाषा की सीमाओं को समझेंगे।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत प्रबंध को हिंदी में प्रस्तुत करने के लिए पुणे विश्वविद्यालय ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर अनुमति प्रदान की। इसके लिए पुणे विश्वविद्यालय और उसके दर्शनविभाग के पदाधिकारियों के प्रति हम हार्दिक रूप से कृतज्ञ हैं।
इस कार्य में पुणे के भंडारकर ग्रंथालय एवं जैन साधना - सदन पुस्तकालय; अहमदनगर के श्री तिलोकरत्न स्था. पाथर्डी बोर्ड का ग्रंथालय तथा कुछ अन्य - अनेक
इक्कीस
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